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अष्टादश अध्याय
२६३ अनुवाद। जिनसे प्राणियोंका प्रवृत्ति, जिनसे यह समस्त व्याप्त है, उनकी स्वकर्म द्वारा अर्चना ( पूजा ) करके मानव सिद्धिलाभ करते है ।। ४६ ।।
व्याख्या। भगवान एक अद्वितीय है। भगवान सर्वान्तर्यामी और सर्वव्यापी है। वह जगत्कारण है, इसलिये उन्होंसे प्राणियोंकी प्रवृत्ति अर्थात् उत्पत्ति है, और वही एक मात्र कर्मफल-विधाता है, इस कारण करके उन्हींसे प्राणियोंकी प्रवृत्ति अर्थात् चेष्टा है। अर्थात् कर्मबद्ध जीव कृतकर्मके फल भोगनेके लिये उन्होंके अनिवार्य विधानसे यथोचित कुलमें जन्म लेते हैं और तदनुरूप मानसिकवृत्ति भी पाते हैं। __ भगवान गुणकर्मके विभाग अनुसारसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्ण वा श्रेणीकी सृष्टि किये हैं और प्रत्येक वर्णका स्वभावज कर्म भी निर्देश कर दिये हैं। मनुष्य जो ब्राह्मणादि वर्णमें जन्म ग्रहण करता है, वह अपने अपने कर्मफल से होता है; परन्तु फलविधाता ईश्वरके विधानसे अपना सञ्चित कर्मफल भोग करनेके लिये ही जन्मग्रहण करता है। शरीर धारण होनेसे ही जो सब सचित कर्म फल देनेके लिये उन्मुख होते हैं, उन सबका नाम प्रारब्ध कर्म है अर्थात् जो कर्म फलनेको प्रारम्भ हुआ है। शरीर ही प्रारब्ध कर्मका समष्टि है। प्रारब्ध-कम भोग किये बिना क्षय प्राप्त नहीं होता। परन्तु वह भोग अनासक्त हो करके करनेसे ही "असक्तबुद्धिः सर्वत्र" होनेसे ही, कर्म क्षय होता है, नहीं तो आसक्त वा द्वषयुक्त हो करके करनेसे पुनः कर्म-बन्धनमें फंसना होता है। इसलिये रागद्वष विहीन हो करके प्रारब्ध भोग और कर्मानुष्ठान करनेकी व्यवस्था है। सुतरां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चाहे किसी कुलमें जन्म हो जाय, प्रारब्ध भोगना ही पड़ेगा। साधु हो, चाहे असाधु हो, प्रारब्धके हाथसे किसीका छूटकारा नहीं है। प्रारब्ध अपने ही कर्मका फल है, इसलिये इसे स्वकर्म कहते हैं। अगर मैंने शूद्र कुलमें जन्म लिया है,