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श्रीमद्भगवद्गीता स्वीकार आप ही आपसे जिनके अन्तःकरणमें प्रकाश पावेगा, वे ही ब्राह्मण कह करके अपनेको मान लेंगे, और उनको इन्हीं सब पाचरणोंसे मुक्तिलाभ होगा॥ ४२ ॥
शौय्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्य युद्धे चाप्यपलायनम् । दोनमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥४३॥
अन्वयः। शौय्यं ( पराक्रमः ) तेजः (प्रागल्भ्यं ) धृतिः (धयं ) दाक्ष्य (कैशलं ) युद्धच अपि अपलायानं ( अपराङ मुखता ) दानं (औदार्य ) ईश्वरभावश्च (नियमनशक्तिह) स्वभाव क्षात्रं कर्म ( क्षत्रियस्य स्वाभाविकं कर्म ) ।। ४३ ॥
अनुवाद। शौर्य, तेज, धृति, दक्षता, युद्ध में अपलायन, दान और ईश्वरभाव ये सब क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं ॥ ४३ ॥
व्याख्या। आठों पहर लड़े सो शूरा। अर्थात् अष्ट प्रहर युद्ध (क्रिया ) करनेसे भी जो शक्ति क्लान्त होने नहीं देती, उसी महाशक्तिका नाम शौर्य है। तेजः-शत्रुतापन शक्ति, ( ससैन्य प्रकृतिको अपने वशमें लाना)। जिस शक्तिसे अवसाद मात्र नहीं आता है, वही धृति वा धारणावती शक्ति है, ( आज्ञाचक्रके ऊपर उठ कर परम शिवमें अविच्छेद कर लक्ष्य स्थिर रखना। कारणके साथ कार्यका परिणाम फल प्रत्यक्षवत् हृदयमें विद्यमान रहना ही दक्षता है। युद्धक्षेत्रमें चाहे जैसी अवस्था आ पड़े, उससे विमुख न होकर सम्मुखीन रहना ही अपलायन है, (आज्ञाचक्रसे मूलाधारमें उतर आना, पुनः सामने उठ जाना, बांसकी सीढ़ीमें मजूरोंके चढ़ने उतरनेके सदृश है )। दान - त्याग स्वीकार। और वेद-ईश्वरमें विश्वास, अर्थात् प्रभुत्व स्वीकार करण और प्रभुत्व स्वीकार करवानेका भाव। यह सब कर्म क्षत्रियों के स्वभावज हैं। इन सबके आचरणसे ही उनकी ऊर्ध्वगति होती है ॥४३॥