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श्रीमद्भगवद्गीता धन, स्वास्थ्य उत्साहादिकी हानि करके यौवनमें जराप्रस्त बनाता है, आपात सुख देकरके दुःख प्राप्ति कराता है, उसीको राजस सुख कहते हैं ॥ ३८॥
यदन चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः। . निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ ३६॥
अन्वयः। यत्सुख अग्रे च ( प्रथमक्षणे ) अनुबन्धे च ( पश्चादपि ) आत्मनः 'मोहनं ( मोहकरं ) निद्रालस्यप्रमादीत्थं, तत् तामसं उदाहृतम् ॥ ३९॥।
अनुवाद। जो सुख पहले भी आत्माका मोहकर पश्चात्में भी आत्माका मोहकर तथा निद्रा आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न है, उसीको तामस सुख कहते हैं ॥३९॥
न्याख्या। जो सुख आत्महारा कराके (बुद्धिको ढांक देकर) निद्रा, आलस्य और प्रमादके साथ मिलन कराता है, जैसे हमउमर हमजोली लोग दल बांधकर खानेवाली चीज लेकर बनभोजको गये, धतूरेके बीज भांगके साथ मिलाके पीसकर पी लिया, कितनी कथा, कितनी वार्ता, कितनी हंसी, कितना आनन्द भोग करते करते मारे नशाके बेहोश हो गये, कुत्ते गीदड़ आके खानेकी चीजें सब खा गये; हमलोग सबेरे उठकर रूखे सूखे मुंहसे मकान लौट आये। इस प्रकारके सुख भोगको तामस सुख कहते हैं ।। ३६ ॥
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः। सत्वं प्रकृतिजैमुक्तं यदेमिः स्यास्त्रिभिगुणैः ॥४०॥
अन्वयः। पृथिव्यां दिवि वा देवेषु वा पुनः तत् सत्त्वं ( प्राणिजातं ) न अस्ति यत् प्रकृतिजैः (प्रकृतिसम्भवैः ) एभिः त्रिभिः (सत्त्वादिभिः ) गुणः मुक्त स्यात् ॥ ४० ॥ .
अनुवाद । पृथिवीमें किम्वा स्वर्गमें ऐसे कि देवतोंके भीतर भी ऐसा कोई प्राणो नहीं है, जो प्रकृतिजात इन तीन गुणोंसे मुक्त है ॥ ४० ॥