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अष्टादशोऽध्यायः
अर्जुन उवाच । संन्यासस्य महाबाहो तत्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक् केशिनिसूदन ॥ १ ॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच। भो हृषीकेश ( सर्षेन्द्रियनियामक ) ! हे हाबाहो! केशिनिसूदन] संन्यासस्य त्यागस्य च तत्त्वं ( यथात्म्यं ) पृथक् ( विवेकेन ) वेदितु इच्छामि ॥ १ ॥
अनुवाद। अर्जुन कहते हैं। हे हृषीकेश ! हे महाबाहो केशिनिसूदन ! मैं संन्यासका और त्यागका तत्त्व पृथक् पृथक् रूपसे जाननेकी इच्छा करता हूँ ॥१॥ :
व्याख्या। प्रथम अध्यायसे सप्तदश अध्याय पर्यन्त गीता शास्त्रमें जो जो कथा कही हुई हैं, उन्हींकी संक्षिप्त समालोचना वा उपसंहार इस अष्टादश अध्यायमें है। योग शब्दके भीतर दो प्रकारके भाव हैं, एक संन्यास भाव और दूसरा त्याग भाव। सचराचर संन्यासी अथवा त्यागी कहनेसे अन्तःकरण उन दोनोंका अर्थ एक हो करके मान लेता है। यह मान लेना ही सच्चा है, अथवा उसमें और किसी प्रकारका प्रभेद है ? इसे जाननेके लिये साधकके मनमें प्रश्न उठा। हे केशिनिसूदन ! केश शब्दमें आवरक, लोम, जो छिपाके रखता है। आवरणशक्तिको केशि कहते हैं, जो आवरणशक्ति ज्ञानको आच्छादन कर रखती है। केशिनिसूदन अर्थात् जो स्वप्रकाश है, ज्ञानकी आवरणशक्तिका विनाशक है। प्रश्न अज्ञानता जनित होता है; उसी अज्ञानताके नाशके लिये केशिनिसूदन कह करके सम्बोधन किया हुआ है, अर्थात् दैत्यहारी। दैत्य कहते हैं व्यभिचारी क्षत्रियको