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श्रीमद्भगवद्गीता क्रिया-अवस्था ही साधककी क्षत्रिय अवस्था है। "क्षतात् त्रायते इति क्षत्रिय"। क्षत असम्पूर्णताको कहते हैं । इस असम्पूर्णत्वसे जो त्राण पा करके परिपूर्णत्व लेनेकी चेष्टा करते हैं, उन्हींको क्षत्रिय कहते हैं। इस क्षत्रिय-अवस्थामें अर्थात् क्रियाकालमें प्रश्न उठनेसे क्रियामें व्यभिचार आ पहुँचा । उस व्यभिचारके विनाशके लिये साधक विष्णु के शरणागत हुए, अर्थात् निजबोधमें लक्ष्य किए। सुतरां इन्द्रिय समूह संयत हो गए, और फिर साधकको अपने वशमें नहीं ला सके। इस कारणसे हृषीकेश शब्दका व्यवहार किया हुआ है। हृषीकेश - हृषी का इन्द्रिय समूह + ईश-नियन्ता। इस अवस्थामें संन्यास और त्यागका मर्मार्थ समझनेकी चेष्टा होती है। हे महाबाहो ! (जानने का जो कुछ है, सो समस्त ही निजबोधका आयत्ताधीन है, इसलिये महाबाहु शब्द व्यवहार हुआ है ) तुम मुझको संन्यास और त्यागका सार तत्त्व ( पृथकता) समझा दो ॥ १॥
श्रीभगवानुवाच । काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥२॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । काम्यानां कर्मणां न्यासं ( परित्यागं ) संन्यास कवयः ( पण्डिताः ) विदुः ( जानन्ति ); सर्वकर्मफलत्यागं ( सर्वेषां काम्यानां नित्यनैमित्तिकानां च कर्माणां फलमात्रत्यागं) त्यागं विचक्षणाः ( निपुणाः पण्डिताः) प्राहुः ( कथयन्ति ) ॥ २॥
अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं। कविगण काम्य कर्म समूहके परित्यागको ही संन्यास कह करके जानते हैं; विचक्षणगण सर्व प्रकार कर्भके फलके त्यागको ही त्याग कहते है॥२॥
व्याख्या। 'श्रीभगवानुवाच' अर्थात् निजबोधसे मीमांसा ।