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श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। हे धनञ्जय ! बुद्धि और धृतिके सत्त्वादि गुणानुसार तीन प्रकारका जो भेद पृथग्भावमें अशेष रूपसे कहा जाता है, उसे सुनलो ॥ २९ ॥
व्याख्या। साधक ज्ञानकाण्डकी चरम सीमामें पहुँच गये; अब अपने कर्मविहीन निष्क्रियपदमें बैठके श्रात्मभावस्थ हो करके देखते हैं कि सप्त्वादि तीनों गुणके प्रभेदसे जगत्का जो कुछ है, यह सब तीन प्रकारके हुए हैं, उनके भीतर उन्नतिकामी साधकका सत्व ही अवलम्बनीय है; क्योंकि “ऊवं गच्छन्ति सस्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः अधो गच्छन्ति तामसाः"। जगतकी सब चीजमेंसे ही उस सात्त्विक भावको चून लेनेके लिये आत्मभावस्थ हो करके जाननेका अवसर प्राप्त होनेसे साधक सबमें ही तीन प्रकारके भाव लक्ष्य कर लेते हैं। ज्ञान, कर्म और कर्त्ताके गुण भेदसे तीन प्रकारका भाव देख चुके, अब बुद्धि और धृतिका त्रिविध भाव देखते हैं। इस बुद्धि और धृतिको जय कर लेनेसे प्राप्तिका विषय वा जाननेका विषय कुछ भी बाकी न रहेगा। विशुद्ध बुद्धि युक्त होनेसे ही विषय तथा राग और द्वेषका त्याग हो कर शान्त अवस्था आती है, पराभक्तिका उदय होता है, उससे ही अहं स्वरूपमें प्रवेश लाभ होता है और मोक्ष होती है। साधक अर्जुन जो उस विशुद्ध बुद्धिके जयमें सामर्थ्यवान है, यह उनके धनन्जय नामसे ही प्रकाशित है (१०म अः ३७ श्लोककी व्याख्या देखो); इसलिये यहां उनके धनजय नामका उल्लेख करके कहा गया कि-हे धनञ्जय, सत्त्व, रज और तम गुणानुसार बुद्धि और धृतिकी भिन्नता तीन प्रकारकी कैसे हैं, उन्हें अलग अलग विशेष रूपसे तुमको कहता हूँ सुन लो ॥ २६ ॥
प्रवृत्तिब्च निवृत्तिञ्च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्ध मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥३०॥ अन्वय : हे पार्थ ! प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकाव्ये भयाभये बन्ध मोक्षं च या वेत्ति, सा सात्त्विको बुद्धिः ॥ ३० ॥