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२५८ . ____ श्रीमद्भगवद्गीता .. मुक्तसंगोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिध्यसिध्योर्निर्विकारः कर्ता साविक उच्यते ।। २६ ॥ . अन्वयः। मुक्तसंगः ( त्यक्ताभिनिवेशः ) अनहंवादी (नाहं वदनशीलः गर्वोक्तिरहितः ) धृत्युत्साहसमन्वितः (धेर्योद्यमाभ्यां संयुक्तः ) सिध्यसिध्यो निविकारः ( आरब्धस्य कर्मणः सिद्धावसिद्धौ च हर्षविषादशून्यः ) कर्ता सात्त्वि उच्यते ॥ २६ ॥
अनुवाद। संगरहित, अनहंवादी ( अहं इस प्रकार गर्वोक्ति रहित ), धेय्यं और उत्साहसे युक्त, सिद्धि और असिद्धि में हर्ष विषादरूप विकार शून्यः कर्तागण सात्त्विक कहके उक्त होते हैं ॥ २६ ॥
व्याख्या। जिस साधकके क्रिया कालमें इच्छाका उद्रेक नहीं होता, [ मैं कह करके अभिमान नहीं रहता, जिसका मन ब्रह्ममार्ग में ही बंधा रहता है, प्रति क्रममें ही जो साधक विस्तारतामें मिल जानेके लिये अग्रसर होता है, सिद्धि वा असिद्धिः नाक विकार जिसके अन्तःकरणको स्पर्श नहीं कर सकता, ऐसे अवस्थापन्न साधक को सात्त्विक कर्ता कहते हैं। (अन्तःकरण जब विशाल तृष्णासे बंधा रहता है, ऐसी दरिद्रावस्थाको असिद्धावस्था कहते हैं; और प्राप्ति की प्राप्ति सिद्धावस्था है। इस प्राप्तिकी प्राप्तिका बोध जब तक रहता है तब तक उसे विकार जानना, स्वरूप में स्थिति हो जानेसे उसको फिर विकार कहा नहीं जाता ) ॥ २६ ॥
रागी कर्मफळप्रेप्सुलुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ॥ २७ ॥ अन्वयः। रागी ( पुत्रादिप्रोतिमान् ) कर्मफलप्रेप्सुः ( कर्मफलकामी ) लुब्धः ( परस्वाभिलाषी ) हिंसात्मकः ( मारकस्वभावः ) अशुचि: (विहितशौचशून्यः ) हर्षशोकान्वितः (लामालाभयोहर्षशोकाभ्यां समन्वितः ) कर्ता राजसः परिकीत्तितः ॥ २७॥