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श्रीमद्भगवद्गीता यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन् कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवदल्पञ्च तत्तामसमुदाहृतम् ॥ २२ ॥ अन्वयः। यत् तु.( ज्ञानं ) एकस्मिन् कार्ये ( देहे प्रतिमादौ वा) कृत्स्नषत् (परिपूर्णवत् ) सक्त ( एतावानेवात्मा ईश्वरो वेत्यभिनिवेशयुक्त) अहैतुकं ( हेतुवजितं ), अतत्त्वार्थवत् ( परमार्थालम्बनशून्यं ) अल्पं च (तुच्छं अल्पविषयत्वात् अल्पफलत्वाच्च ), तत् ( ज्ञानं ) तामसं उदाहृतम् ॥ २२ ॥
अनुवाद। और जो ज्ञान एक कार्य में ( देहमें वा प्रतिमादिमें ) परिपूर्णवत् आसक्त ( अर्थात् यही आत्मा वा ईश्वर है इस प्रकार अभिनिवेशयुक्त), हेतुष जित, परमार्थालम्बनशून्य, और अल्प है, उसोको तामस ज्ञान कह करके जाना ।। २२ ।।
व्याख्या। यह क्षुद्र भोगायतन शरीर ही मैं हूँ, और जगत्में जो कुछ दृश्य पदार्थ हैं, वे सब ही हमारे भोगके लिये हैं; जो ज्ञान इस सिद्धान्तको उत्पन्न करता है, जो ज्ञान विचार-युक्ति विहीन, परमार्थलक्ष्य-भ्रष्ट और संकीर्ण है, उसे तामस ज्ञान कहते हैं ॥ २२॥
नियतं संगरहितमरागद्वषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत् सात्त्विकमुच्यते ॥ २३ ॥ अन्वयः। यत् नियतं (नित्यतया विहितं ) कर्म अफलप्रेप्सुना ( निष्कामेण कत्रों ) संगरहितं ( अभिनिवेशशून्यं यथा स्यात् तथा ) अरागद्वेषतः कृतम् , तत् कर्म सात्त्विक उच्यते ॥ २३ ॥
अनुवाद। नित्यरूप करके विहित जो कर्म निष्काम कर्ताके द्वारा संगरहित हो करके तथा रागद्वेष वजित हो करके कृत होय, उसको सात्त्विक कर्म कहा जाता है॥ २३॥ ___ व्याख्या। जब संस्कार वश करके अबाधतः ब्रह्ममार्गमें प्राणका चालन होता रहता है; इच्छा, अनुराग वा द्वषका छुआछूत नहीं रहता है, अधिक क्या-कर्मफलको आशाका उदय भी नहीं होता, उमीको सात्विक कर्म कहते हैं ॥ २३ ॥