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अष्टादश अध्याय
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यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलाथासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥ २४ ॥ अन्वयः। तु यत्कर्म कामेप्सुना ( फलं प्राप्तुमिच्छता ) साहंकारेण वा ( अहंकार. युक्त न कर्ता वा ) क्रियते, पुनः बहुलायासं ( यत् पुनः अतिक्लेशयुक्त ) तत् ( कर्म ) राजसं उदाहृतम् ॥ २४ ॥
अनुवाद । किन्तु जो कर्म फलकामौ वा अहंकारी मनुष्योंके द्वारा अनुष्ठित होता है, और जो अति क्लेशयुक्त है उसको राजस कर्म कहते हैं ॥ २४ ॥
व्याख्या। हमारे मकानमें गोबर गणेशको पूजा है, इन्द्रके नन्दनवनसे नील कमल लानेके लिये आदमो दौड़ा, गाजे बाजेके शब्द से गांव भर अस्थिर हो गया, इस प्रकार नाम जाहिर करनेवाले कर्म को राजस कर्म कहते हैं ॥ २४ ॥
अनुबन्ध क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥ २५ ॥ अन्वयः। अनुबन्ध ( पश्चात् भावि शुभाशुभं) क्षयं ( वित्तक्षयं ) हिंसा (परपीड़ां ) पौरुषं च ( स्वसामाथ्यं ) अनपेक्ष्य ( अपर्यालोच्य ) यत् कर्म मोहात् ( अविवेकतः ) आरभ्यते, तत् तामसं उदाहृतम् ।। २५ ॥
अनुवाद। पश्चात्भावि शुभाशुभ, क्षय, परपीड़ा, स्वसामर्थ्यकी पर्यालोचनां न करके मोहके वशसे जिस कर्मका प्रारम्भ किया जाता है, उसको तामस कर्म कहते हैं ॥ २५॥
व्याख्या। फल क्या होगा उसका ठौर ठिकाना नहीं, अपनी सामर्थ्य न समझ करके, शत्रको मारनेके लिये उपवास करके श्मशान जगाता हूँ. विधि नहीं मन्त्र नहीं ( मन जो संकल्प-विकल्परूप चचलताको लिया है, वह चञ्चलता जिससे त्याग होती है उसीको मन्त्र कहते हैं। यह कर्म गुरूपदेश सापेक्ष है ); ऐसे जो अझनतामय कर्म हैं; उनको तामस कर्म कहते हैं ॥२५॥