________________
२६४
श्रीमद्भगवद्गीता त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपाकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥३॥ अन्वयः। एफे मनीषिणः कर्म दोषषत् इति ( हेतोः ) त्याज्यं प्राहुः; अथवा व मं दोषवत् ( दोषो यथा रागादिस्त्यज्यते तथा ) त्याज्यं इति प्राहुः। अपरे च यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं इति प्राहुः ॥ ३ ॥
अनुवाद। कोई कोई मनीषि कहते हैं कि कर्म दोषयुक्त अतएव त्याज्य (किंवा कर्म रागादि दोषवत् त्याग करना उचित ) है; अपर कोई कोई कहते हैं कि, यज्ञ दान तपः कम त्याज्य नहीं हैं ॥ ३ ॥
व्याख्या। जो साधक मनको अपने वश में ला चुके उन्हें मनीषि कहते हैं। वह मनोषिगण ब्राझीस्थितिका रसास्वाद करके कर्मके (प्राणचालनके ) कम्पनको भी अच्छा मानते नहीं। इस कारणसे उनके लिये कर्म भी त्याज्य है, कहते हैं। और अपर लोग ( दूसरे), जिनका मन उतना वशीभूत नहीं हुआ है, वे सब कहते हैं कि यज्ञा दान, तप, क्रिया यह सब त्यागकी वस्तु नहीं हैं ॥ ३ ॥
निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम । त्यागोहि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः॥४॥
अन्वयः। हे भरतसत्तम । तत्र त्यागे निश्चयं मे ( मम वचनात् ) शृणु ( अवधारय ); हे पुरुषव्याघ्र । त्यागः हि त्रिविधः संप्रकीत्तितः ॥ ४ ॥
अनुवाद। हे भरतसत्तम । उसी त्यागके विषयको निश्चय करके हमारे वचनसे श्रवण करो। हे पुरुषश्रेष्ठ ! त्याग भो त न प्रकार कह करके कीतित है ॥ ४॥
व्याख्या। हे भरतकुल-पावन पुरुषश्रेष्ठ ! ऊपर जो त्यागकी कथा कही हुई है, वह त्याग भो तीन प्रकारका है। उसकी मीमांसा कहता हूँ, श्रवण करो ॥४॥