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श्रीमद्भगवद्गीता तत्रैव सति कर्तारमात्मानं केवलन्तु यः । पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥ १६ ॥
अन्वयः। तत्र ( सर्वस्मिन् कर्मणि) एवं ( एते पञ्च हेतव इत्येवं सति यः केवलं ( निरुपाधिमसंगं) आत्मानं कतारं पश्यति, अकृतबुद्धित्वात् ( असंस्कृतबुद्धित्वात् ) स दुर्मतिः ( सम्यक् ) न पश्यति ॥ १६ ।।
अनुवाद। उस विषयमें ( सर्व प्रकार कर्मके सम्बन्धमें) इस प्रकार होनेसे भी ( इन पांचके हेतु होने से भो ) जो पुरुष निरुपाधि असंग आत्माको कर्तारूप मान करके दर्शन करता है, वह दुर्मति असंस्कृत बुद्धि हेतु सम्यक् देखने नहीं पाता ॥१६॥
व्याख्या। मैं आत्मा, केवलराम, नित्य, शुद्ध, बुद्ध मुक्त और निष्क्रिय हूँ। कहे हुए उन पांचोंका कोई हेतु भी मुझको छू नहीं सकता। परन्तु जो लोग चर्मचक्षुके देखनेसे "मैं देखता हूँ" हाथकी करनीसे "मैं करता हूँ" मनकी गढ़ाई में "मैं गढ़ता हूँ", बुद्धिके निश्चय करनेसे "मैं निश्चय करता हूँ” इस प्रकार सोचते हैं, अपनेको ( आत्मा को) कर्ता बनाते हैं, वे लोग अकृतबुद्धि (देहात्माभिमानी) तथा दुर्मति हैं ( उन सभोंकी मति वा मन जन्म-मृत्यु प्रदान करने वाला हेतुको ले कर रहता है, वे अपनेमें आप नहीं रह सकते, आत्मासे दूर रहते हैं)। इसलिये अपनेको देख करके भी देखने नहीं पाते, दूर दूरमें फिरते रहते हैं ॥ १६ ॥
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमान् लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥ १७॥
अन्वयः। यस्य अहंकृतो भावः ( अहंकर्ता इत्येवंभूतोऽभिप्रायः ) न (अस्ति), यस्य बुद्धिः न लिप्यते ( इष्टानिष्टबुद्ध या कर्मसु न सज्जते ) स इमान् लोकान् ( सर्षानपि प्राणिनः) हत्वा अपि न हन्ति, न च ( तत्फलेः) निबध्यते ( बन्धन प्राप्नोति ) ॥ १७ ॥