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अष्टादश अध्याय यज्ञदानतप कर्म न त्याज्यं कार्य्यमेव तत्।
यज्ञोदानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥५॥ अन्वयः। यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं, तत् कार्यम् एष ( करणीयमेव ); यज्ञः दानं तपश्च एव मनीषिणाम् ( विवेकिनां ) पावनानि (चित्तशुद्धिकराणि) n५॥
अनुवाद । यज्ञ, दान, तप कर्म परित्याज्य नहीं है, वे सब अवश्य कर्तव्य है। यज्ञ, दान और तप ही मनीषि लोगोंका चित्तशुद्ध करनेवाला है ॥५॥
व्याख्या। मनको ले करके रहनेसे यज्ञ, तप, दान, यह सब कर्म छोड़ करके रहा नहीं जाता। संस्कार से आप ही आप करा देता है। क्योंकि विवेकियोंके अन्तःकरण शुद्धि करनेकी उपादान ही ( मसाला ) यज्ञ, दान और तप है ॥५॥
एतान्यपि तु कर्माणि संगं त्यत्तवा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥ ६ ॥ अन्वयः। हे पार्थ! अपि तु एतानि कर्माणि संगं (कत्त त्वाभिनिवेशं) फलानि च त्यक्त्वा कर्तव्यानि इति में निश्चितं उत्तम मतं ॥ ६॥ .. अनुवाद। हे पार्थ ! परन्तु इन सब कर्मों का अनुष्ठान संग और फलको त्याग करके करना चाहिये। यही हमारा निश्चित उत्तम मत है ।। ६॥ __ व्याख्या। जैसे एक हाथी के पगके परिधिके भीतर समस्त पगका स्थान होता है, तैसे एक ब्रह्ममार्गमें वायु-चालन होनेसे समस्त यन्त्र, दान और तपका कर्म ही सम्पन्न होता है, अथच संग अर्थात् इच्छारूपिणी मायाका संस्रव न रहनेके कारण कर्मफलमें लिप्त होना नहीं पड़ता। इसलिये कहा गया कि, संग ( कर्मफलेच्छा) परित्याग करके यज्ञ, दान, तपः कर्म करना हो निश्चय कर्त्तव्य है। हे पार्थ! हमारा श्रेष्ठ अभिप्राय यही है। (२य ः४५४६ श्लोक, ३य : श्लोक ५म : १० श्लोक हम अः २०।२१ श्लोक)॥ ६॥ :