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श्रीमद्भगवद्गीता नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीत्तितः॥७॥ अन्वयः। नियतस्य ( नित्यस्य ) कर्मणः तु सन्यासः ( परित्यागः ) न उपपद्यते; मोहात् तस्य परित्यागः तामसः परिकीत्तितः ॥ ७॥ ___ अनुवाद। किन्तु नित्यकर्मका परित्याग करना कत्तव्य नहीं है; मोहवशतः उसका परित्याग तामस कह करके कौत्तित होता है ॥ ७॥
व्याख्या। फलाकांक्षा-रहित कमका उपदेश करनेसे कर्मत्यागका उपदेश नहीं किया गया। अविवेकी मूखंगण मोहके वशसे जिस कर्मका त्याग करते हैं, उसको तामस त्याग कहते हैं ॥७॥
दुःखमित्येव यत्कर्म कायफ्लेशभयास्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥८॥ अन्वयः। दुःख इति एष ( मत्वा ) यत् कर्म कायक्लेशभयात् ( शरीरदुःखभयात् ) त्यजेत् सः राजसं त्यागं कृत्वा त्यागफलं (ज्ञाननिष्ठालक्षणं ) न एव लभेत् ॥ ८॥ - अनुवाद। दुःख बोध करके कायक्लेश भयके लिये जो की कमका परित्याग करता है, वह राजस त्याग करके त्यागफल (मोक्ष ) लाभ नहीं कर सकता ॥ ८॥
व्याख्या। [ लाभ नहीं, व्योपारका सार बखेड़ा है ] । वह जो फलाकांक्षा-रहित कर्मका उपदेश है, उस मतके कर्ममें आदि, अन्त और मध्य युक्त कुछ भी नहीं मिलता। केवल निकम्मे बैठे बैठे आकाश धोनेके काम है। ऐसे खाली बैठे बैठे शरीरमें जड़त्व आता है और इसी अवस्थामें कालान्तर प्राप्त होनेसे शरीर अस्वस्थ्य हो जाता है, इत्यादि कल्पित भय करके जो सब लोग उस कर्मको परित्याग करते हैं, उन सबको एकको छोड़कर दूसरे कर्मको करना ही पड़ता है, परन्तु ब्राह्मीस्थिति वा ब्रह्मज्ञान जो उस महत् त्यागके