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अष्टादश अध्याय
२६७फल है उसे वे लोग नहीं पाते। उनके त्यागको राजस त्याग कहते हैं ।। ८॥
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्विको मतः ॥ ६ ॥ अन्वयः। हे अर्जुन ! यत् कर्म कार्यम् इति एव ( बुध्वा ) संगं फलं च एक त्यक्त्वा नियतं क्रियते, सः त्यागः सात्त्विकः मतः ॥ ९ ॥
अनुवाद। हे अर्जुन ! जिस कर्मको अवश्य कर्तव्य बोध करके, संग और फल परित्याग करके, नियत अनुष्ठान किया जाता है ( उसमें जो त्याग है ) उसी त्यागको सात्त्विक त्याग कहते हैं ।। ९॥
व्याख्या। बाहर अभ्यासके कारणसे ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का जो कुछ कार्य होता जाता है, भीतर अनासक्त भावसे ब्रह्मनाड़ीका प्राण-चालन भी होता चला जाता है, यह जो संयत क्रिया है, इसमें कर्मफलमें कोई आसक्ति नहीं रहती, मैं त्याग करता हूँ, यह कह करके त्यागमें भी आसक्ति नहीं रहती। हे अर्जुन ! इस प्रकार त्याग को ही सात्विक त्याग कहते हैं ॥ ६॥ .
न द्वष्ट्यकुशलं कर्म कुशलेनानुषज्यते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥१०॥ अन्वयः। त्यागी ( सात्त्विकत्यागी ) सत्त्वसमाविष्टः ( सत्त्वेन आत्मानात्मविवेकविज्ञानहेतुना समाविष्टः संव्याप्तः संयुक्तः ) अतएव मेधावी ( मेधया आत्मज्ञानलक्षणया प्रज्ञया संयुक्तः, स्थिरबुद्धिरित्यर्थः ) अतएव छिन्नसंशयः (छिन्नः संशयः मिथ्याज्ञानं यस्य सः) भूत्वा अकुशलं ( दुःखावहं ) कर्म न द्वष्टि कुशले च ( सुखकरे कर्मणि ) न अनुषज्जते ( प्रीतिं न करोति ) ॥ १०॥
अनुवाद। त्यागीगण सत्त्वसमाविष्ट, स्थिरबुद्धि और छिन्नसंशय होनेसे दुःखकर कर्मके प्रति द्वष नहीं करते तथा सुखकर कर्मों से प्रीति भी नहीं करते ॥१०॥