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पञ्चदश अध्याय परिवर्तनसे नगराकार नष्ट हो जानेसे भी अन्तःकरणमें पूर्वदृष्ट नगर का जो छाप लग चुके, वह छाप जसे और मिटाया नहीं जा सकता, बहुकालके बाद प्रयोजन अनुसार स्मृति के सहारेसे अन्तःकरण जैसे उस नगरको अपने क्षेत्रमें फिर दिखला देता है, परन्तु तब (उस समय) उस नगरके रूपका कोई चिह्न भी आँखके सम्मुख शरीरके बाहर विद्यमान नहीं रहता है, मनका खेल मनके भीतर मन ही मनमें जसे सब देख चुके; तैसे उस कल्पित संसार अश्वत्थवृक्षका कोई रूप नहीं, केवल कल्पना ही कल्पना है। इसलिये इसका प्रथम, शेष अथवा मध्यभाग निर्देश किया नहीं जा सकता। जो आदौ नहीं है, उसका मध्यभाग और शेष क्या ? तथापि यह जो अश्वत्थ वृक्ष बनाया गया है, उस मन-गढन्त वृक्षकी छाप अन्तःकरण ले चुका; कालान्तरमें चाहे इस जन्ममें होय, चाहे शतान्ते होय, कभी न कभी स्मृतिके सहारासे उसको फिर उदय करावेगा। दिन जितना अधिक बीतेगा, उतना ही यह कल्पना अन्तःकरण क्षेत्रमें गभीरसे गभीरतर होती रहेगी। तदनुसार इसकी शक्ति भी वृद्धि होती रहेगी। दृढ़ अभ्यासके द्वारा परा वैराग्यके सहायतासे उपेक्षा करते करते जब इस संसारके ऊपर जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्तिमें भी मिलनकी इच्छा न उठेगी, तबही वह सुदृढमूल काल्पनिक स्मृतिका खण्डन होवेगा। उस स्मृतिको खण्डन करनेका उपाय भी वही परा-वैराग्य वा उपेक्षा है।
वह परा वैराग्य आज्ञाचक्रके ऊपरसे प्रारम्भ होता है। साधक ! तुम देखो, संसारकी जो कुछ लीला आज्ञाचक्र पर्यन्त पड़ी रह गयी। इस बेर तुम आज्ञाचक्रके ऊपर उठे हो; अब तुम निष्क्रिय हो। यह देखो तुम्हारा स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर और नहीं है। और तुम प्रकृतिके गर्भके बिम्ब नहीं हो। प्रशान्त असीम जलराशिमें बूद भर तेल फेंक देनेसे सब जलके ऊपरको छाह लेनेके लिये तेलका अणुसमूह जैसा दौड़ता है, तैसे तुम अब असीम विस्तारमें कैसे मिल जाते हो