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श्रीमद्भगवद्गीता शास्त्रविधि शब्दका और भी एक अर्थ है। जो शासन करता है, उसीको शास्त्र कहते हैं। इस शरीरका शासन-कर्ता वायु है। वायुसे ही शरीरकी क्रिया चल रही है, वायु थोड़ी सी इधर उधर होनेसे फिर शरीर नहीं ठहरता। इसलिये शरीरमें वायु ही शास्त्र है। वायु प्राण-रूपसे जीवकी जीवन रक्षा करता है; यह वायु सम और सूक्ष्म हो करके क्रिया करनेसे जीवको ज्ञान देता है-ब्रह्मत्व देता है, और विकृत होनेसे पागल बनाता है-संसारका कीट करता है। इसलिये शरीरका शासक इस वायुको अपना आयत्त करनेसे ही जीवकी
आत्मोन्नति होती है। अतएव इस वायु-क्रियाके सम्बन्धमें जो नियम है वही शास्त्रविधि है; अर्थात् प्राणायाम वा प्राणयज्ञ सम्बन्धीय नियमको ही शास्त्रविधि कहते हैं। यह नियम ब्रह्माजीके उस अनुशासन वाक्य बिना और कुछ भी नहीं है। इस कारणसे शास्त्रविधि शब्दका अर्थ जो कुछ हो, उसका फल एकही है, सहयज्ञ वा प्राणक्रिया का नियम ही शास्त्रविधि है। ब्रह्माजीके मुखसे निकला हुआ यह वेद का विधान है।
वेदके गुग्य विषय होनेके कारण भगवान अर्जुनको निस्त्रैगुण्य होनेके लिये उपदेश दिये हैं (२ य अः ४५ श्लोक )। उस उपदेशमें श्रीभगवानने वेद-विधिकी अवहेलना करना नहीं कहा है। वेद-विधि ही निस्वैगुण्य होनेका एकमात्र उपाय है। अंधियारे घरके भीतर अभिलषित चीज देख लेनेके लिये एकमात्र उपाय जैसे दीप ही है, से निस्वैगुण्य होनेके लिये जो एकमात्र उपाय है वह वेद-विधि है। अभीष्ट चीज मिलनेके पश्चात् फिर जैसे उस उजलेका प्रयोजन नहीं रहता, तैसे निस्त्रैगुण्य होनेके पश्चात् फिर उस वेद-विधिसे प्रयोजन
* मनुष्य मात्र हा वायुग्रस्त है। जिसको जैसी वायु, वह तैसे ही काज करता है; जसे किसोको साधु होनेके लिये वायु, किसाको बदमाश होनेके लिये वायु इत्यादि प्रकार हैं। इस वायुको ही मनका मक वा प्रवृत्ति कहते हैं ॥ २३ ॥