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श्रीमद्भगवद्गीता है इसलिये शास्त्रविधान में विभिन्न प्रकार कर्मका अनुष्ठान करनेकी' व्यवस्था है। जो साधक जैसी अधिकार-भूमिमें खड़ा होगा, उसको तदनुरूप क्रिया करनी होगी। नहीं तो वह भ्रष्ट हो जायेगा। पूर्व श्लोकमें कहा हुआ है कि, "देवान् भावयतानेन" इत्यादिको ही शास्त्रविधि कहते हैं। उस विधिको पालन करनेका साधारण नियम है "असक्तोह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः” अर्थात् अनासक्त हो करके कर्मका आचरण करना। परन्तु साधक जैसे जैसे साधनफलसे ऊंचेसे ऊंचे क्षेत्रमें उठते रहेंगे, उसके साथ ही साथ उनकी उन्नतिके पथका कण्टक समूह (शत्रुभावापन्न वृत्तियां ) प्रत्यक्ष होते रहेंगे। प्रतिकूल वृत्तिको देखतेही उसका विनाश साधन न करनेसे फिर उठा नहीं जा सकता, उन्नतिमें विघ्न पड़ता है। तब साधक जिस अधिकार-भूमिमें पहुँचे हैं उसी भूमिका अनुष्ठेय कर्मको विशेष रूपसे जानकर उनको उसी कर्मका अनुष्ठान करके शत्रु-विनाश करना होगा। अधिकार-भूमिके उचित कर्मको लक्ष्य करके ही श्रीभगवान् १८श अः में कहे हैं "सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्" इसका अर्थ यथास्थानमें व्याख्या की जावेगी। __ "देवान् भावयतानेन” इत्यादि यह जो आदि शास्त्रविधि है, इस विधि पालनमें विघ्न उपस्थित होनेसे ही उसे दूर करनेके लिये कुछ विधान हैं । यथासमयमें उन सब विधानको परिज्ञात हो करके तदनुरूप कर्म करना पड़ता है। गुरुदेव ही उसे जना देते हैं। साधक असक्त हो करके साधारण नियमसे क्रिया करते हुए भीतर प्रवेश करने का अधिकार लाभ करनेसे श्रीगुरुदेवके पास एकके बाद एक, द्वितीय क्रिया, तृतीय क्रिया, चतुर्थ क्रिया प्रभृति विविध क्रिया और उसके साथ साधनकी विशेष प्रकारकी सुविधाके लिये ईडापिंगला-शोधन क्रिया, प्रन्थिभेद क्रिया प्रभृति नानाविध क्रिया ज्ञात हो करके उन सबका अभ्यास करते हैं। उसमें विघ्न विनाश होकरके आत्मोन्नतिके.