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सप्तदश अध्याय
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अनुवाद। जो दान अदेशमें, अकाल में और कुपात्रको दिया जाता है, उस सत्कारशून्य पात्रतिरस्कारयुक्त दानको तामस दान कहते हैं ॥ २२ ॥
व्याख्या। जगत्में ( प्रदेशमें ) जब बाहरका विषय लेके मतवाला रहता हूँ ऐसे समयमें (अकालमें , भोग्य वस्तुमें (अपात्रमें ) भोगातुर हो करके ( असत्कृत ) जो आत्मसमर्पण ( आत्माको अवज्ञा करके तदाकारत्व लेना) उसको तामस दान कहते हैं ॥२२॥
ॐ तत्सदिति निर्देशों ब्रह्मणविविधः स्मृतः। ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥२३॥ तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्त्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥ २४ ।। अन्वयः। ॐ तत् सत् इति त्रिविधो ब्रह्मणः ( परमात्मनः ) निर्देशः (नाम्ना व्यपदेशः ) स्मृतः, तेन ( त्रिविधेन ब्रह्मणो निर्देशन ) ब्राह्मणाश्च वेदाश्च यज्ञाश्च पुरा (सृष्ट्यादौ ) विहिताः ( विधात्रा निमिताः सगुणीकृता इति वा )। तस्मात् ब्रह्मवादिना ( वेदवादिना ) विधानोकाः ( शास्त्रोक्ताः) यज्ञदानतपक्रियाः सततं ऊँ इति उदाहृत्य ( उच्चायं ) प्रवत्तन्ते ॥ २३ ॥ २४ ॥
अनुवाद। ॐ तत् सत् ये तीन प्रकारके ब्रह्मके निर्देश (नाम ) कहे गये हैं, उससे ब्राह्मणगण, वेदसमूह तथा सकल यज्ञ पुराकालमें विहित (निमित्त किम्घा सगुणीकृत ) हुए हैं। इसलिये सर्वदा ब्रह्मवादियोंके शास्त्रोक धर्म यज्ञ दान तपः क्रिया (ऊँ ) इस मन्त्रको उच्चारण करके प्रारम्भ होते हैं ॥ २३ ॥ २४ ।।
व्याख्या। जैसे गो शब्द कहनेसे शृंग, लांगूल, चारों पद, और गलकम्बल (गलेमें लटकता हुआ कम्बलाकृति मांस ) युक्त एक पशुकी स्मृति आती है, तैसे ॐ तत् सत् इन तीनोंके प्रत्येक शब्द ही मनमें ब्रह्मभाव लानेका ( निर्देशक ) बीज (ब्रह्मका नाम ) है। इस ॐ तत् सत् द्वारा स्रष्टाने ब्राह्मण, वेद और यज्ञोंको सृष्टिकालमें निर्देश कर दिया है। इसलिये ब्रह्मवादी लोग (जो लोग ब्रह्मको लेकर आलो
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