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सप्तदश अध्याय . अनुवाद। सत्कार, मान और पूजाके लिये दम्भ पूर्वक जो तप अनुष्ठित होता है, वही अनित्य और क्षणिक तप इस लोकमें राजस कहके उक्त होता है ॥ १८॥ - व्याख्या। लोक दिखौआ पूजाका आयोजन, उपवासका
आडम्बर, बहुतसे लोग इकठे होकरके शिवरात्रिका अनुष्ठान करते हैं; परन्तु खुद भण्डार घरमें छिपकर पेट भर लेते हैं। चन्दरोजके वास्ते बाहर नाम प्रतिष्ठा प्राप्त करनेके लिये इस प्रकार उपवासकी जो तपस्या परलोकका हितवर्जित और अनिश्चित है, इस तपस्याको राजस तप कहते हैं ॥ १८ ॥
मुढग्राहेणात्मनो यत् पीड़या क्रियते तपः। . परस्योत्सादनार्थ वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥ १६ ॥
अन्वयः। मूढ़ग्राहेण (अविवेककृतेन दुराग्रहेण ) आत्मनः पोड्या परस्य ( अन्यस्य ) उत्सादनार्थ वा ( विनाशार्थमभिचाररूपं ) यत् तपः क्रियते तत् तामसं उदाहृतम् ( कथितं ) ॥ १९॥
अनुवाद। अविवेककृत दुराग्रह पूर्वक देहादिको पीड़ा देकरके जो तप किया जाता है, किम्बा दूसरेका विनाश साधनार्थ जो तप किया जाता है उसको तामस तप कहते है॥ १९॥
व्याख्या। विचारबुद्धिविहीन मूर्ख सदृश फलानेको निवंश बिना किये जलग्रहण नहीं करूंगा, यह कह कर अपने शरीरको उपवास द्वारा सुखाकर तापन करना वा अभिचारादि (मारण उच्चाटन प्रभृतिके ) प्रयोग करनेका नाम तामस तपस्या है ॥ १६ ॥
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥२०॥ अन्वयः। यत् दानं देशे ( पुण्यक्षेत्रे ) काले च ( संक्रान्तिग्रहणपादौ ) अनुपकारिणे ( प्रत्युपकारासमर्थाय ) पात्रे च ( भाचारनिष्ठाय इत्यर्थः) दातव्यं इति दीयते, तत् दानं सात्त्विकं स्मृतं ॥ २० ॥