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श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। मनःप्रसादः मनकी उद्वगहीन प्रसन्न अवस्था। "सौम्यत्व" अन्त:करण चतुष्टयका स्थिर भावमें अवस्थान। जिस अवस्थामें (मरण, मूछा तथा अज्ञानताको आश्रय न करके ) कथा कहनेकी क्रिया प्रलीन रहती है, उसीको “मौन" अवस्था कहते हैं।
आत्मामें स्थिति (अपनेमें आप रहना ) "आत्मविनिग्रह"। अन्त:करणका मायाविकार-भोग कट जाकर जो स्वभावमें अवस्थान है वही "भावसंशुद्धि" अवस्था है। इन सबको मानसिक तप कहते हैं ॥१६॥
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श्रद्धया परया तप्तं तपस्त त्रिविध नरः।।
अफलाकाक्षिभिर्युक्तः सात्विकं परिचक्षते ॥ १७॥ अन्धयः। अफलाको क्षिभिः ( फलाकांक्षाशून्यैः ) युक्तः ( एकाग्रचित्तः) नरैः 'परया (श्रेष्ठया) श्रद्धया तप्तं ( अनुष्ठितं ) तत् त्रिविध तपः सात्त्विकं ( सत्त्व"निवृत्त) परिचक्षते ( कथयन्ति शिष्टाः) ॥१७॥
अनुवाद। फलकांक्षाशून्य एकाग्रचित्त मनुष्योंसे पराश्रद्धाके साथ अनुष्ठित इस त्रिविध तपको सात्त्विक तप कहते हैं । १७ ।।
व्याख्या। वह जो कायिक, वाचिक, मानसिक तीन प्रकारके तपकी कथा कही हुई है, उसके भीतर फलाकांक्षाको छोड़ करके जो निराश समाधि-स्थितिकी चेष्टा है उसीको सात्त्विक तप कहते हैं ॥१७॥
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलभध्र वम् ॥ १८ ॥ अन्वयः। सत्कारमानपूजार्थ ( सत्कारः साधुकारः साधुरयं तपस्वी ब्राह्मणः इत्येवमर्थ, मानो माननं प्रत्युत्थानाभिवादनादिस्तदर्थ, पूजा पादप्रक्षालनार्चनाशयितृप्तादिस्तदर्थच ) दम्भेन चैव यत् तपः क्रियते, तत् चलं ( अनियतं ) अध्रुवं (क्षणिक) तपः इह राजसं प्रोतं ॥१८॥