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सप्तदश अध्याय
२४७ विषय-चिन्तासे मलिन होता है, सुतरां उन सबकी प्रतिफलन-प्रतिभा शक्ति नष्ट होती है, बोधशक्ति स्थूल होती है, धारणा विलुप्त होती है, ज्ञानेन्द्रिय समूह सूक्ष्म पदार्थक प्रहणमें असमर्थ होते हैं। उनके अन्तःकरण इस प्रकार मलिन हो जानेसे आत्मज्योति उसे फिर उसे आलोकित नहीं कर सकती, वरन् क्रम अनुसार क्षीण होती जाती
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिम शृणु ॥७॥ अन्वयः। सर्वस्य अपि ( जनस्य ) पाहारः तु (अन्नादिः) त्रिविधः प्रियः भवति, तथा यज्ञः तपः दानं ( एतानि त्रिविधानि भवन्ति ), तेषां इमं ( वक्ष्यमाणं) भेदं शृणु ॥७॥ ___ अनुवाद। सबको आहार भी तीन प्रकारके प्रिय हैं, तद्रूप यज्ञ तप और दान भी ( तीन प्रकारका ) है; उन सबका भेद अब श्रवण करो ॥ ७ ॥
व्याख्या। यह जो तीन सत्वामें तीन प्रकारका पुरुष कहा हुआ है, सत्त्वा अनुसार उन सबको आहार, यज्ञ, तप, और दान भी तीन प्रकारके प्रिय होते हैं। उसे मैं कहता हूँ, सुनो ॥ ७ ॥ ____ * यथार्थतः आत्मा कदापि क्षीण नहीं होती, आत्मा सदाकाल अक्षय अव्यय है। जैसे कांचके चिमनीके भीतर दीप शिखा जलते रहनेसे चिमनीकी स्वच्छतासे बाहर साफ ज्योतिका प्रकाश होता है, और चिमनीको मलिनतासे बाहरको ज्योतिमें मृदुता आती है; चिमनी स्याही अधिक जम जावे तो ज्योति बाहर नहीं फैलती; चिमनीके भीतरपाली दीप शिखाको ज्योति जैसे हीन निस्तेज मालूम होती है; परन्तु दीप शिखा कदापि ज्योतिहीन नहीं होती, वह बराबर चिमनीके भीतर समान जलती रहती है, कांचके आवरणकी स्वच्छता और मलिनतासे आलोक शिखाकी ज्योतिका तारतम्य होता है; आत्मामें भी ठोक तैसे, अन्तःकरण वा चित्तको शुद्धता और अशुद्धतासे आत्म-ज्योति सतेज, निस्तेज अथवा क्षीण अनुभवमें आती है॥५॥६॥