________________
सप्तदश अध्याय
२५१ को ( एकत्र अवस्थानको ) विधिदिष्ट कहते हैं। इसी प्रकारसे मनको समाधान करके, अर्थात् मनको मिला करके, जो पुरुषार्थकी चेष्टाकी जाती है, उसीको सात्विक यज्ञ कहते हैं ॥ ११ ॥
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥ १२ ॥ अन्वयः। हे मरतश्रेष्ठ । अपितु फलं अभिसन्धाय ( उद्धिश्य ) दम्भायं एव च (स्वमहत्त्वख्यापनाय ) यत् इज्यते तं यज्ञं राजसं विद्धि ॥ १२ ॥
अनुवाद। हे भरतश्रेष्ठ । परन्तु फलको उद्देश करके स्वमहत्त्व प्रचार करनेके लिये जो यज्ञ अनुष्ठित होता है, उस यज्ञको राजस यज्ञ कहते हैं ।। १२ ।।
व्याख्या। हे भरतकुलश्रेष्ठ ! फलके ऊपर लक्ष्य करके दम्मके साथ जो यज्ञ किया जाता है, उसको राजस यज्ञ कहते हैं। जैसे मैं वृद्ध हूँ, प्रतिष्ठित पण्डित, ब्राह्मण भी हूँ; काश्यपके मकानमें ब्राह्मण समूहका निमंत्रण हुआ, सूर्यदेव डूबने वाले हैं; समस्त ब्राह्मण हमारी अपेक्षा कर रहे हैं; मैं बड़ी पूजा अनुष्ठान करने वाला हूं, यह कथा लोकमें प्रचार करनेके लिये दरवाजा बंद करके ठाकुरद्वारेमें बैठ कर हाथके नखसे पांवके नखका मैला साफ कर रहा हूँ। ऐसे ऐसे कार्य रजोगुणसे उत्पन्न होते हैं ॥ १२ ॥
विधिहीनमसृष्टान्न मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ १३ ॥ अन्वयः। विधिहीनं ( शास्त्रोक्तविधिशून्यं ) असृष्टान्नं ब्राह्मणादिभ्यः असृष्ट न निष्पादितं अन्नं यस्मिन् तं ) मन्त्रहीनं अदक्षिणं श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परि-- चक्षते ( कथयन्ति शिष्टाः ) ॥ १३ ॥
अनुवाद । शास्त्रोक्त विधिशून्य, ब्राह्मणादिको अन्नदान शून्य, मन्त्रविहीन, . दक्षिणा विहीन तथा श्रद्धासे भी रहित यज्ञको तामस थज्ञ कहते है ॥ १३ ॥