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श्रीमद्भगवद्गीता अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः। दम्माहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विता ॥५॥ कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।
माञ्चैवान्तःशरीरस्थं तान् विद्वर यासुरनिश्चयान् ॥ ६ ॥ अन्वयः। दम्माहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ( कामोऽभिलाषः राग मासक्तिः बलमाग्रहः एतरन्विताः ) सन्तः ये अचेतसः (अविवेकिनः ) जनाः शरीरस्थं भूतग्रामं ( करणसमुदायं) अन्तःशरीरस्थं ( अन्तर्यामितया देहमध्ये स्थितं ) मां च एव कर्षयन्तः ( कृशं कुर्वन्तः ) अशास्त्रविहितं घोरं (प्राणिनामात्मनश्च पौड़ाकरं ) तपः तप्यन्ते (कुर्वन्ति ), तान् प्रासुरनिश्चयान् (प्रासुरः प्रतिकरः निश्चयः येषां तान् ) विधि ॥५॥६॥ ___ अनुवाद । दम्भ और अहंकार संयुक्त तथा अभिलाष, आसक्ति और आग्रहसे युक हो करके जो सब अधिवेकी विवेकविहीन व्यक्तिगण शरीरस्थ करणसमूहको एवं शरीर मध्यमें ( अन्तर्यामी रूपसे ) स्थित मुझको भी कृश करके अशास्त्रविहित घोर (आत्म तथा प्राणी पीड़ाकर ) तपस्या करते हैं, उन सबको आसुरनिश्चय (अतिकरका ) करके जानना ॥ ५॥ ६॥ .
व्याख्या। दम्भ =कपटता, अहंकार=मैं बड़ा हूँ यह ज्ञान, कामराग= संकल्प-सम्भव अनुराग, बल-शक्ति ; इन सबको आश्रय करके जो सब अविवेकी पुरुष तपका आचरण करते हैं, शरीरको शुष्क क्षीण अकर्मण्य कर डालते हैं, मैं जो शरीरका अन्तरात्मा हूँ, मेरे अनुशासनको नहीं मानते, मुझको भी क्षीण करते हैं, वे सब आसुरभावापन्न हैं। मुझको भी क्षीण करते हैं इस वचनका अर्थ यह है कि, वे लोग दाम्भिक और अहंकारी तथा कामनापरायण होनेसे कामनापूरणके लिए वे लोग अपनेसे जो उपाय स्थिर करते हैं, उसे ही क्रिया करते हैं, शास्त्रकी कथा ग्राह्य नहीं करते; मारे अहंकारके निश्चय कर लेते हैं कि, वे सब जो करते हैं, समझते हैं वही ठीक है उनके सम्मुख और किसीमें सूझ बूझ है ही नहीं। इस प्रकार कामना के वशमें रह करके मन विषयासक्त होनेसे उन सबका अन्तःकरण