________________
षोड़श अध्याय
२४१ साथ ही साथ भिन्न भिन्न प्रकारकी विभूति लाभ होती रहती है। उन सब क्रियाके अनुष्ठान करनेके नियममें किंचित् विशेषत्व है। कारण उन सब क्रियामें गुरूपदेश मतसे श्वासके ऊपर चेष्टाका प्रयोग करना होता है, श्वासको क्रम अनुसार दीर्य करना होता है, वायु धीरे धीरे अपिच बहुत जोरसे खौचना फेंकना होता है; निश्वास प्रश्वासकी मध्यवती स्थिति कालको बढ़ाना पड़ता है, श्वासको कमी कण्ठसे कभी तालुसे खींचना फेंकना होता है। इन समस्त क्रियामें अभ्यस्त होनेसे नाड़ीपथ समूह परिष्कार हो करके साधन-मार्ग निष्कण्टक होता है और मृत्युकालमें मृत्युयन्त्रणासे अधीर हो करके मात्मच्युत होनेकी सम्भावना भी दूर होती है।
अब देखना चाहिये कि, गीतावर्णित साधक अर्जुन किस प्रकार अधिकारभूमिमें बर्तमान है। अर्जुन साधनमें क्षत्रियचूड़ामणि, अब युद्धके लिये रथारूढ़ हो करके धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रमें शत्रुओंके सम्मुखीन होकर धनुः उत्तोलन किये ही थे; परन्तु शस्त्र सम्पात् प्रारम्भ होने ही के समय "अहं ममेति” संसार-मोहमें मोहित हो करके शोकाकुल होनेसे शर सहित धनुः को परित्याग करके राजस वृत्तिको भी त्याग करके तमोगुण ( प्राकृतिक तमो ) के आकर्षणमें पड़ करके किंकर्तव्यविमूढ़ हुए हैं। इसलिये सत्त्वगुणमूत्ति श्रीभगवान् आत्मज्ञानालोकसे उनका मोह दूर करते हैं, कहते हैं कि "इह शास्त्रविधानोक्तं कर्म ज्ञात्वा कत्त अर्हसि"; "सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्”। अर्थात् तुम क्षत्रिय हो, तुममें सत्त्वमिश्रित रजोगुण प्रधान है; क्षत्रियोंकी कीलाभूमि समर-क्षेत्रमें तुम समरार्थ ागत हो। तुम यह जो अधिकार-भूमिमें दण्डायमान हो, इसमें तुम्हारा स्वभावज कर्म है “शौर्य, तेज, धृति, दाक्ष्य, युद्ध में अपलायन, दान और ईश्वरभाव"। यही शास्त्रविधानोक्त कर्म है। इस कर्मके बिना तुम्हारा और कोई दूसरा श्रेयः नहीं है। यदि तुम अपने इस स्वभावज कर्मको त्याग करके
-१६