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सप्तदशोऽध्यायः
अर्जुन उवाच । ये शास्त्रविधिमुतमृन्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ १॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच । हे कृष्ण ! ये शास्त्रविधि उत्सृज्य तु ( किन्तु) श्रद्धया अन्विताः सन्तः यजन्ते, तेषां निष्ठ' ( स्थितिः ) का ( कीदृशी) ? सत्त्वं रजः आह तमः? ( तेषां तादृशी देवपूजादि-प्रवृत्तिः किं सत्त्वसंश्रिता रजःसंश्रिता तमःसंश्रिता वेत्यर्थः ) ॥ १॥
अनुवाद । अर्जुन कहते हैं । हे कृष्ण | जो लोग शास्त्रविधिको परित्याग करके, परन्तु श्रद्धासे युक्त हो करके यजन करते हैं, उन सबकी निष्ठा किस प्रकारको है? –सत्त्व, रजः अथवा क्या तमः है ? ॥ १॥
व्याख्या। साधक अब अपने मन ही मनमें विचारका प्रश्न करते हैं। -ब्रह्ममार्गमें वायु-चालनके साथ ही साथ चुड़ेला, महाकाल से आदि ले करके ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर ऐसे कि- सस्व-रज-तम-गुणा . महाशक्ति पर्यन्त असंख्य देव-देवीकी मूर्ति दर्शनमें आती है। कितने अशरीरी वाणीका (श्रुतिका ) प्रमाण, इस जन्ममें करनेकी तो बात ही नहीं-ध्यानमें लानेका भी अवसर नहीं मिला, ऐसे ऐसे विषय स्मरणमें (स्मृति ) आते हैं। बड़े बुड्ढे जिसे दर्शन किए हैं, श्रवण किये हैं, परन्तु मैं ने न कभी देखा न सुना, ऐसी प्राचीन (पुराण) कया, कितनी गाथा ( गायत्री आदि छन्द ) भी जाप्रत प्रत्यक्ष प्रमाण देखता हूँ। परन्तु इसके एक भी बाहर नहीं है। जब यह सब देखता हूँ, सुनता हूँ, अनुभव करता हूँ, समझता हूं, तब मन जैसे उन विषयों में मिलके तन्मयी भावमें रहता है। वह जो श्रद्धान्वित यजन है, इससे