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षोड़श अध्याय
२३६ देते हैं, उनके भीतर जिस गुणकी प्रबलता होगी उसी गुणका विन्दु स्पष्ट होकर उज्ज्वल होगा। शरीरमें रजोगुणका प्रकाश जब देखोगे, तब कर्ममें प्रवृत्त होना चाहिये, धर्म लाभ होवेगा; कारण कि वामा धर्मदायिनी शक्ति है। सत्त्वगुणका प्रकाश जब देखोगे तब केवल अर्थके लिये कर्म करोगे, उसका फल भी मिल जावेगा, इसको छोड़ करके और दूसरे कोई कर्म न करना, कारण कि ज्येष्ठा अर्थदायिनी शक्ति है। और तमोगुणका प्रकाश जब देखोगे, उस समय काम्य कर्मके उद्देशमें यात्रा करनेसे अभीष्ट सिद्धि होगा, क्योंकि रौद्री कामसिद्धिदायिनी शक्ति है। यह तीन विन्दु मिल करके एक होनेसे उस त्रिकोणके केन्द्रस्थलमें श्रीविन्दु प्रत्यक्ष होता है, वह विन्दु मुक्तिदायिनी शक्ति है। साधक एकमात्र वायुको सहायतासे यह सब तस्व दर्शन करते हैं और उन सबका फल जान करके उससे कर्तव्याकर्तव्य स्थिर कर ले सकते हैं। अतएव कार्याकार्य व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है। साधनमें गुरुमुखसे वायु-क्रियाका अनेक प्रकारका रहस्य जाना जाता है; उन सबको व्यक्त करना अनावश्यक है।
इस श्लोकके प्रथमार्द्धका अर्थ समझाया गया। अब शेषाद्धका अर्थ समझना होगा। शास्त्र प्रायत्त होनेसे ही ज्ञान लाभ होता है। कौशल द्वारा वायुक्रियाको आयत्त करना ही आत्मोन्नतिका एकमात्र उपाय है। वायुक्रियाको स्वायत्त करनेके सम्बन्धमें प्राणायामादि रूप जो जो नियम हैं, उन्हींको शास्त्रविधान कहते हैं। और अधिकारी भेद करके ( साधकका साधनकी उन्नतिके क्रम अनुसारमें, शरीर-मन शुद्धिके लिये एकके बाद एक करके जो सब क्रिया अनुष्ठान करनेकी व्यवस्था है, उसीको शास्त्रविधानोक्त कर्म कहते हैं। श्रीमत् स्वामी शंकराचार्य जी कहे हैं "इह इति अधिकारभूमिप्रदर्शनार्थ" अर्थात् इस श्लोकमें "इह" शब्द साधककी अधिकार-भूमिको प्रदर्शन करानेके लिये व्यवहृत हुआ है। इस अधिकार-भूमिका विभिन्न स्तर