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श्रीमद्भगवद्गीता कर्त्तव्यका निरूपण करना हो तो, शरीरमें उस समय कौन गुण और कौन तत्त्वको क्रिया चलती है, उसे देखनेसे ही जाना जा सकता है। प्रत्येक गुण और प्रत्येक तत्त्वका अलग अलग रंग है, उसीको देख करके ही शरीरमें कौन गुण और कौन तत्त्वकी क्रिया चल रही है सो समझमें आता है। रजः, सत्व, तमः यह तीन गुण त्रिकोणाकारमें तीन विन्दुके रूपसे लक्ष्यमें आते हैं। रजो-विन्दु उस त्रिकोणके वाम दिशाके कोणमें लक्ष्य होता है, उसका नाम वामा और रंग लाल ( रक्तवत्) है। सत्त्व-विन्दु उर्व दिशाके कोणमें दृष्ट होता है, उसका नाम ज्येष्ठा और उसका रंग शुभ्र (ज्योत्स्नावत् ) है। तमोविन्दु दक्षिण दिशाके कोणमें दृष्ट होता है, उसका नाम रौद्री और रंग काला ( दलिताखनवत् ) है। क्षितिका रंग हरिद्रावर्ण, अपका रंग फीका सब्ज, तेजका रंग लाल ( ज्वलन्त अंगारवत् ), मरुत्का रंग जंगाल (धूम्र रंग भी वायु तत्त्वमें दिखाई पड़ता है), और व्योमका रंग आसमानी ( आकाश सदृश नीला) है। वायु ही इन सब रंगों को कूटस्थमें प्रकाश कर देता है। गुरूपदिष्ट नियमसे वायुको खींच करके कूटस्थके ऊपर लक्ष्य करनेसे ही शरीरमें उस वक्त जो गुण प्रबल है उसका विन्दु और जिस तत्त्वकी क्रिया चल रही है उसका रंग देखने में आता है। इसे देख करके ही योगीगण कर्मका फलाफल जान करके कर्त्तव्याकर्त्तव्यका स्थिर करते हैं। क्षितिका रंग देखनेसे समझना होगा कि कर्ममें आशु फल मिल जावेगा, शुभजनक, निरापद है इत्यादि । अपका रंग देखनेसे समझना होगा कि, फल मिलना संदेहजनक है। तेजका रंग देखनेसे समझना होगा कि कर्ममें सिद्धि लाभ नहीं होगा, फल नहीं मिलेगा। मरुत्का रंग देखनेसे समझना होगा कि शुभ हो सकता है, परन्तु ऐसा होनेसे भी वह स्थायी न होगा। व्योमका रंग देखनेसे समझना होगा कि फल फलेगा; परन्तु बिलम्ब करके। तीन गुणके बह जो तीन विन्दु त्रिकोणाकाग्में दर्शन