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श्रीमद्भगवद्गीता में जाप्रत अवस्थामें साधारणतः जो सब भाव प्रकाश पाता है, आसन करके बठकर क्रिया करनेके समय वायु सूक्ष्मपथमें थोड़ासा प्रवेश करते मात्र ही वे सब भाव और अन्तःकरणमें स्थिर भावसे नहीं रहते। ऐसा भी होता है कि, मन उदास हो जाता है, कुछ भी अच्छा नहीं लगता, एक जगह पर रहनेकी इच्छा नहीं करती, ऐसी अवस्थामें यदि शरीरकी वायुगति घुमाय देओ, वायुके ऊपर मन फेंक के वायुको कूटस्थकी दिशामें चला देओ तो, वायुकी गति घुमनेके साथ ही साथ मनकी पूर्व अवस्थाका परिवर्तन हो जाता है। ज्योंही वायुका सूक्ष्मपथमें चलना प्रारम्भ होता है, त्योंही मनमें एक आश्चर्य-. जनक परिवर्तन होता है; मन बहुव्यापी हो जाता है; कितने कालका कितने प्रकारका भला बुरा भाव सब एक होकर मनके भीतर उदय होता है; मन जैसे उन सब भावको तब एक बार नवीन करके सोच लेता है । कृत-कर्मके संस्कारका ऐसा ही प्रताप है। उसके ऊपर वायु सम हो आनेसे देखनेमें आता है कि, बाहरका भाव और भीतरमें प्रवेश नहीं करता, अन्तःकरण भीतर वाले व्यापारमें ही आकृष्ट रहता है। (इस विषयको अति बालक साधक भी अनुभवसे समझते हैं )। केवल यही नहीं। वायु जब सूक्ष्म होता है-वायुको जहाँ इच्छा हो ले जाया जा सकता है, संयत किया भी जा सकता है, तब देखनेमें आता है कि वायु स्थानविशेषमें अन्तःकरणके भीतर विशेष विशेष भावका उदय करा देता है। ऐसे कि, मनमें कोई कुछ जाननेका प्रबल इच्छा रहनेसे, वायु उसी इच्छाके साथ एकीभूत हो करके चैतन्यमय हो जाता है और मनको लक्ष्यस्थल में स्थिर धीर भावसे अटका कर, कोई जैसे कुछ कह गये, इस प्रकार अशरीरी वाणीसे मनके भीतर जो जाननेका विषय था, उसे कह देता है। वही वाणी कहना तथा मन की वह वाणी सुनना ठीक जैसे विद्युत् चमकके सदृश काज हो जाता है। उस बाणीको सुनते मात्र मन परितृप्त हो जाता है, समझनेमें