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षोड़श अध्याय
२३५. नाना प्रकारके शब्दोंका उत्थान होता है, वह सब शब्द क्रम अनुसार नादमें परिणत होता है तथा नादसे अनेक प्रकारकी वाक्यलहरो प्रवाहित होती है। उस वाक्यलहरीमें चित्तको संयत करनेसे श्रुति, स्मृति प्रभृति समग्र ज्ञानविषय सुनने में आ जाता है। यह समस्त ज्ञान शास्त्ररूपी वायुके द्वारा ही उत्पन्न होता है, और उसी ज्ञानसे ही संसार चलता है इस कारण उस श्रुति स्मृतिको भी शास्त्र कहते हैं। दयावान् आर्यऋषिगण उन्हीं ज्ञान समूहको शास्त्र नाम देकरके भिन्न भिन्न प्रन्थाकारमें लिपिबद्ध कर गये हैं। केवल सुननेमें आता है, ऐसा नहीं परन्तु उस नादके भीतरसे एक ज्योति खिल उठती है, उस ज्योतिसे भूत भविष्यतूका व्यापार दर्शनमें भाता है। इस कारण करके वायु साधकको सर्वज्ञ और सर्वदशी करता है, साधकके ज्ञानको भी शासनमें रखता है।
यह शास्त्रका परिचय हुआ। यह वायुरूपी शास्त्र कार्याकार्य व्यवस्थामें किस प्रकारके प्रमाण है, उसे अब देखना चाहिये। निश्चय का हेतुको प्रमाण कहते हैं। श्रीमत् शंकराचार्य स्वामी कहे हैं कि, प्रमाण अर्थमें ज्ञान, साधन है। कोई एक विषय कर्तव्य है या अकर्तव्य, उसे जानना हो-निश्चय करना हो तो, शास्त्र हो उस निश्चयका हेतु होता है। कारण कि, शास्त्र अर्थात् शरीरका शासक वायु ही बुद्धिक्षेत्रमें संयत हो करके बुद्धिको सचेष्ट करके विकशित करके कर्त्तव्या-कर्त्तव्यका निरूपण कर देता है। जो लोग साधन-मार्ग में किञ्चिदपि अग्रसर हुए हैं, सो सब साधक वायुकी यह आश्चर्यजनक क्रिया समझ सकेंगे। देखा जाता है कि अस्मदादिके अन्त:करण: ___ * इसलिये व्यवस्था है कि, जो साधक जिस व्रतका अनुष्ठान करेंगे वह साधक उसी सम्बन्धीय शास्त्रका अभ्यास करेंगे; ऐसा होनेसे ही साधक अपने ज्ञातव्य अनुष्ठेय विषयको जान सकेंगे। यत् यत् शास्त्रं समभ्यसेत् तत्तत् व्रतं समाचरेत् ॥ २४ ॥