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२०२ - श्रीमद्भगवद्गीता
मैं को छोड़ करके दूसरे और किसीके साथ मिलनेको इच्छा भी संगदोष है। यह इच्छा अन्तःकरणसे एकदम मिटा करके जो स्थिति, वही "जितसंगदोष" अवस्था है। ____ सबको छोड़ करके बुद्धि जब केवल आत्माको लेकरके विभोर रहती है, उस अवस्थाको "अध्यात्मनित्य” कहते हैं।
"मैं” बिना और किसीकी प्राप्ति लालसाका नाम काम है। और समस्त प्राप्ति-इच्छा लय होनेके पश्चात् जो ब्राह्मीस्थिति, वही , "विनिवृत्तकाम” अवस्था है।
परस्पर विरुद्ध दोनोंका नाम द्वन्द्व है, जैसे शीत-उष्ण, सुख-दुःख,. राग-द्वेष इत्यादि । इन सबके अत्यन्त विवृत्तिका नाम “द्वन्द्वविमुक्ति" अवस्था है।
यह समस्त अवस्था जिनमें अविच्छेद प्रकाश रहता है, वे साधक अमृढ़ नाम पाते हैं। और वह अमूढ़ ही अव्यय तत्पदको लाभ करते हैं ॥५॥
न तद्भासयते सूर्यों न शशाको न पावकः । - यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ ६॥
अन्वयः। तत् ( पदं सूर्यः ) न भासयते (प्रकाशयति ), शशाङ्कः न भासयते, पावकः न भासयते; यत् गत्वा ( प्राप्य ) न निवर्तन्ते ( योगिनः इत्यर्थः ), तत् मम परमं धाम (स्वरूपं ) ॥ ६ ॥
अनुवाद। उस तत्पदको सूर्य प्रकाश कर नहीं सकता, चन्द्र प्रकाश कर नहीं सकता, अग्नि भी प्रकाश कर नहीं सकता, जहां जानसे योगीगण और प्रत्यावर्तन नहीं करते वही हमारा परम धाम ( स्वरूप ) है ॥ ६ ॥
व्याख्या। सूर्य महान् ज्योतिसमष्टि होने पर भी उस तद्विष्णु के परमपदको अपनी ज्योतिसे प्रकाश नहीं कर सकता, चन्द्र भी कर नहीं सकता, अग्नि भी नहीं कर सकती; क्योंकि इन तीनोंमें किसी