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श्रीमद्भगवद्गीता जैसे ज्योतिषकी धातु है। एक प्रकार ब्रह्मासे आदि लेके स्थावरान्त समस्त भूत है "घर" अर्थात नाशमान पुरुष। और एक साक्षात् कूट कचना-जाल राशि स्वरूपा, जहांसे अनन्त संसार बीजका क्षरण होता है, वही माया है। जिस मायाने अनजान भावसे चैतन्यको अपने गर्भमें भर लिया, तथापि चैतन्यको गर्भमें लेनेका ज्ञान उसमें नहीं है, उठाया हुश्रा समुद्र-लवणाम्बु सदृश रहता है, (मायाका ही प्रकाश है, परन्तु क्रिया नहीं इसलिये कूटस्थ-पुरुष संज्ञा है )। ऐसी माया ही अक्षर पुरुष हैं ( ८म मः "कूटस्थ” देखो।। सूर्यसे निरन्तर रश्मिके क्षरण होनेसे भी सूर्य जैसे अक्षर ही रहते हैं मायाका संसार-बीज क्षरण भी उसी प्रकार है। इन दोनोंको ही सोपाधिक पुरुष कहते हैं ॥१६॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ १७ ॥ अन्धयः। तु ( किन्तु ) उत्तमः ( उत्कृष्टतमः ) पुरुषः अन्यः ( आभ्यां क्षराक्षराभ्यां अत्यन्तविलक्षणः ) परमात्मा ( परमश्चासौ आत्मा चेति, आत्मत्वेन क्षरादचेतनाद्विलक्षणः परमत्वेनाक्षराच भोक्त पिलक्षण इत्यर्थः) इति उदाहृतः ( उक्त: श्रुतिभिः ), यः ईश्वरः ( ईशनशीलः ) अव्ययश्च (निधिकार एव सन् ) लोकत्रयं भाविश्य विभत्ति ( पालयति ) ॥ १७॥
अनुवाद। परन्तु उत्तम पुरुष (क्षर और अक्षरसे ) मिन्न पृथक् ), तथा परमात्मा नाम करके अभिहित है, जो ईश्वर और अन्यय तथा लोकत्रयमें प्रवेश करके पालन करते है॥१७॥
व्याख्या। उत्-तम पुरुष। उच्चतम, पुरुषमें जिनसे और कोई ऊंचा नहीं है । पुरुष प्रभृति नाम वा रूपके भीतर जो नहीं है, तथापि पुरुषों के ऊपर रहनेके लिये जगत्में लोग जिनको पुरुषोत्तम कहते हैं । जो उस उपाधिप्रस्त दोनों पुरुषसे विलक्षण भिन्न (पृथक् है ), जो