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श्रीमद्भगवद्गीता धैर्य, शौच, अद्रोह और अतिमानशून्यता-यह सब देवी सम्पद अभिमुखमें जात मनुष्योंको प्राप्त होते हैं ।। १॥ २॥ ३ ॥
व्याख्या। पूर्वाध्यायके शेष श्लोकमें जो "एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यश्च भारत” कहा हुआ है, यहां उसीका परिष्कृति दिखाई जाती है। अर्थात् हम अध्यायके १२श श्लोकमें जो राक्षसी
और आसुरी प्रकृतिकी कथा है, उससे मोहन और भवबन्धन होता है। और उस अध्यायके १३श श्लोकमें कथित देवी प्रकृतिसे मुक्ति मिलती है । उस देवी और आसुरी प्रकृतिका आकार कैसा है ? वही कहा जाता है।
- "अभयं"-कहते हैं निर्भयको। भय केवल मरनेका है । जोव जब साधन-शक्तिसे जान लेते हैं कि "मैं पुरुषोत्तम हूँ" तब फिर उनको मृत्युभय नहीं रहता। जब अन्तःकरणमें सम्यक् प्रकारसे परवश्वनादि माया-विकारके अनुत्थानके लिये केवल शुद्ध भावका व्यवहार होता है, तबही "सत्त्वसंशुद्धि” अवस्था कही जाती है (१४ अः २य श्लोक)। "ज्ञान"। ज्ञेय वस्तुको समझ लेनेके बाद जो तुष्णोम्भाव (विश्राम अवस्था) हाता है वही ज्ञान है ( अः १म श्लोक, १३ अः ७मसे ११श श्लोक और १४ अः ६ष्ठ श्लोक देखो)। चित्तवृत्तिनिरोधके जो बाद स्थिति है उसे "योग" कहते हैं। इन दोनोंमें निष्ठाका नाम "अवस्थिति" है। इस कारण करके ज्ञानमें और योगमें निष्ठा का नाम "ज्ञानयोगव्यवस्थिति" कहा है। न्यायार्जित धनको सत्पात्र में अर्पण करनेका नाम “दान" है ( १० अ०५म श्लोक)। "दम"-' बहिवृत्तिका निरोध। “यज्ञ"-श्रुति और स्मृति कथित क्रियायाग । वेदादिके अर्थ परिज्ञानका नाम "स्वाध्याय" है। "तपः" -क्रिया विशेषके द्वारा अन्तःकरणको सत्पथमें चलाना। - "आर्जव"सरलता।