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षोड़श अध्याय
२२५ अपि च हनिष्ये, अहं ईश्वरः, अहं भोगी, अहं सिद्धः ( कृतकृत्यः ) बलवान् सुखी आढ्यः (धनादिसम्पन्नः ) अभिजनवान् ( कुलोनः ) अस्मि, मया सदशः अन्यः कः अस्ति ? ( अहं) यक्ष्ये ( यागेनापि अन्यान भिभविष्यामि ) दास्यामि मोदिष्ये (हर्ष प्राप्स्यामि )-इति ( एवम्प्रकारेण ) अज्ञानधिमोहिताः ( अविवेकभावापन्नाः) अनेकचित्तविभ्रान्ताः ( अनेकषु मनोरथेषु प्रवृत्त चित्त अनेकचित्तं तेन विभ्रान्ताः विक्षिप्ताः ) मोहजालसमावृताः ( मोहमयेन जालेन समावृताः) कामभोगेषु प्रसक्ताः ( अभिनिविष्टाः ) सन्तः अशुचौ नरके पतन्ति ॥ १३ ॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥
अनुवाद। आज हमें यह ( मनोरथ ) लाभ हुआ, यह मनोरथ पाऊंगा, यह धन मेरा है, फिर मेरे इतना धन होगा; हमसे यह शत्रु मारे गये, दूसरे शत्रुओंको भी मारूंगा; मैं ईश्वर हूँ, मैं भोगी हूँ, मैं सिद्ध, बलवान, सुखी, धनादिसम्पन्न और कुलोन हूँ, मेरे सदृश दूसरा कौन है ? मैं याग करूंगा, दान करूंगा, आनन्द पाऊंगा। -इस प्रकारको अज्ञानतासे विमोहित वे सब आसुरिक लोग अनेक विषयों में प्रवृत्तचित्त द्वारा विक्षिप्त, मोहजालसे समावृत्त और कामभोगमें आसक हो करके अशुचि नरकमें पतित होते हैं ॥ १३ ॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥
व्याख्या। आज हमने इतना (धन) पाया, इससे फलाना मनोरथ पूर्ण करूंगा। इतना (धन ) हमारा है, भविष्यत् में और इतना पाऊंगा तब ही मेरा नाम धनवान होगा। फलाने शत्रुको मैं मार चुका और फलानेको मारूंगा। मैं ईश्वर, मैं भोगी, मैं सिद्ध पुरुष, मैं बलवान, मैं सुखी, धनवान और ज्ञानवान हूँ, मेरे समान
और कौन है ? मैं याग यज्ञ रासधारियों को लीलामें इतना खर्च कर सकता हूँ। जो इस प्रकार अज्ञानतासे विमोहित हैं और भी बहुत प्रकारके चित्त विभ्रमसे ( चिन्तादिमें पड़ करके ) श्रावृत, तथा कामभोग-लालसामें आसक्त हो करके कभी जो अपना होनेवाला नहीं, उसको भी अपना निश्चय करके उसके प्रणयमें डूबकर प्रतिक्षण में उस उस प्रकार चिन्तामें मग्न रहते हैं, इन सबके गाढ़ अभ्यासके लिये मृत्युकालमें कामाकारा वृत्तिके उदय होनेसे ("या मतिः सा गतिर्भवेत्" ) अशुचि नरकमें (श्राहार-निद्रा-मैथुन भय-सुलभ योनिमें)
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