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श्रीमद्भगवद्गीता तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् । क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ १६ ॥
अन्वयः। अहं [ मां ] द्विषत: तान् क्रूरान् अशुभान् नराधमान् संसारेषु (जन्ममृत्युमार्गेषु ) आसुरीषु एव ( अतिकरासु व्याघ्रसादियोनिषु ) अजस्र ( अनपरतं ) क्षिपामि ( तेषां पापकर्मणां तादृशं फलं ददामीत्यर्थः) ॥ १९॥
अनुवाद। मुझको द्वष करनेवाले उन सब कर अशुभ नराधर्मोको मैं संसारकी आसुरी योनिमें ही निरन्तर फेकता रहता हूँ ॥ १९॥
व्याख्या। "अह" = कूटस्थ चैतन्य वा अक्षर पुरुष। यह अहं ही सर्वक्षेत्रमें क्षेत्रज्ञ है। यह पुरुष ही सर्वभूतमें सम है; इनका कोई द्वष्य नहीं और प्रिय भी नहीं है। (हम अः २६ श्लोक )। यही पुरुष कर्मफल-विधाता है। जिसका जैसा कर्म है उसको वैसा फल देते हैं—केशाप्रका कोटि भागैक भाग भी इधर उधर नहीं होता। यही पुरुष "सर्वस्य हृदि सन्निविष्टः" है; इन्होंसे ही स्मृति, ज्ञान और इन दोनोंका विलय भी होता है ( १५ शमः १५ श श्लोक ); और यह पुरुष ही सर्वनियन्ता ईश्वर रूपसे स्वकीय स्वभावज कर्ममें निबद्ध जीव को तत्तत्कममें भ्रमण करवाते हैं ( १८ अः ६०।६१ श्लोक ) जीव जिस काजका प्रारम्भ करता है, जीवको उसी कर्ममें उसके पूर्वकृत कर्मफल के अनुसार शुभ अशुभ फल देनेके लिये उसकी बुद्धिवृत्तिको तदनुरूप से चलाते हैं। तैसे प्रयाण-कालमें भी जीवको उसके कर्म अनुसार गति देनेके लिये उसके मनमें तदनुरूप भावका स्मरण करा देते हैं। जीव जिस भावको स्मरण करके मरता है, पश्चात् जन्ममें उसी भावको ही प्राप्त होता है। मृत्युकालमें श्रात्मभाव स्मरण होनेसे ही प्राकृतिक अधिकारसे मुक्त होता है; नहीं तो प्रकृतिके गर्भके भीतर जन्ममृत्यु-प्रवाहमें चकर खाता रहता है। इसी प्रकारसे कर्मफल विधान करना ही अन्तर्यानी ईश्वरका कार्य है।