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षोड़श अध्याय
२२१ ( कारणमस्य नास्त्यन्यत् किञ्चित् किन्तु स्त्रीपुसयोरुभयोः काम एव प्रवाहरूपेण हेतुरस्येत्यर्थः ) माहुः ॥ ८॥
अनुवाद। वे लोग कहते हैं कि, जगत् असत्य, अप्रतिष्ठ, अनीश्वर और अपरस्पर-सम्भूत है; इसका दूसरा और कोई कारण नहीं है, यह कामहेतुक है ॥ ८॥
व्याख्या। होता है, रहता है, जाता है, जिस प्रकार देखता हूँ, यह ऐसा ही है। धर्माधर्म कह करके कोई कुछ नहीं। सत्य और ईश्वर भी कोई नहीं है । स्त्री पु' मैथुनमें काम-केलिसे जगत्की उत्पत्ति मात्र है। शरीरका यत्न और भोग करना ही जगत्में सार्थकता है। आसुरी अन्तःकरणकी इस प्रकार ही धारणा है ॥ ८॥
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ।
प्रभवन्त्युप्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥ ६ ॥ अन्वयः। नष्टात्माः अल्पबुद्धयः (ते आसुराः जना8 ) एतां दृष्टि अवष्टभ्य: ( आश्रित्य ) उग्रकर्माणः जगतः अहिताः (शत्रवः भूत्वा ) क्षयाय प्रभवन्ति ॥ ९॥
अनुवाद। नष्टात्मा अल्पबुद्धिशाली वह सब असुर-स्वभाव सम्पन्न लोग इस प्रकार दृष्टिका आश्रय करके उग्रकर्मा तथा जगत्के शत्रु हो करके क्षयके निमित्त उद्भत होते हैं ॥९॥
व्याख्या। वही असुर-स्वभावसम्पन्न लोग 'नष्टात्मा' अर्थात् वह सब सत्व प्रभाववर्जित रजस्तम गुण करके आबद्ध रहनेसे उन लोगोंके चित्तमें आत्माका अनन्त अव्यय भाव प्रकाश नहीं होता, वे सब स्वभाव-भ्रष्ट हैं, इसलिये वे सब अल्पबुद्धि होते हैं। जो चीज भोग करनेसे एकदम क्षय हो जाय, वही अल्प है, जो कभी भय न होय, वही अनन्त है। आत्माकी तुलनामें यह देह अल्प है। वह लोग "मैं आत्मा हूँ" यह भाव हृदयमें नहीं ले सकते; "देह ही मैं हूँ". . यह धारणा करके देहके सुख-सेवामें ही व्यापृत (रत ) होते हैं। यह देहाभिमान उन लोगोंमें पूर्णमात्रामें रहनेसे वह सब “अल्पबुद्धि""