________________
पञ्चदश अध्याय
२१३ सर्वभूतमें चैतन्यस्वरूप प्रत्यगात्मा ( परमात्मा ) है, जो पृथ्वी अन्तरीक्ष और स्वर्गको आक्रम करके रहते हुए भी अविद्याकृत देहादि पत्र कोषके अतीत है, जो अपने चैतन्य, बल और शक्तिसे विश्वको धारण करके अव्यय, नियन्ता होकर रहता है, उसीको उत्तम पुरुष कहते हैं। "असंस्पृश्य शरीरेण येन विश्व चिरं धृतम् ।” ॥ १७ ॥
यस्मात्मरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ १८॥ . अन्वयः। यस्मात् अहं क्षरं ( जड़वर्ग) अतीतः ( अतिक्रान्तः ) अक्षरादपि (चेतनवर्गादपि ) च उत्तमः ( उत्कृष्टतम ऊर्ध्वतमो वा ), अतः लोके वेदे च पुरुषोत्तमः इति प्रथितः ( प्रख्यातः ) अस्मि ॥ १८ ॥
अनुवाद। क्योंकि मैं क्षरोंके अतीत तथा अक्षरसे भी उत्तम हूं, इसलिये लोकजगत् में तथा वेदमें पुरुषोत्तम कह करके प्रख्यात हुआ हूं ॥ १८॥
व्याख्या। मैं उस मायामय भूतादि अश्वत्य वृक्षरूप क्षर पुरुष ( संसार ) को अतिक्रम करके और उस संसार-वृक्षका बीज स्वरूप अक्षर कूटस्थको भी नीचे फेकते हुए ऊंचे रहनेके सदृश रहता हूँ, इसलिये लोक-जगत्में और वेदमें उन दोनों पुरुषोंके ऊपर रहनेके कारण मुझको पुरुषोत्तम नामसे घोषणा करते हैं ॥ १८ ॥
यो मामेबमसंमूढ़ो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥ १६ ॥ अन्वयः। हे भारत ! यः एवं (यथोक्तप्रकारेण) असंमूढः ( निश्चितमतिः सन् ) मां पुरुषोत्तमं जानाति, सः सर्ववित् सर्वभावेन (सर्वप्रकारेण ) मां भजति ॥ १९॥
अनुवाद। हे भारत ! यथोक्त प्रकारसे असंमूढ़ हो करके जो मुझको पुरुषोत्तम कह करके जानते हैं, वे सर्वविद् हो करके सर्व प्रकारसे मुमको भजते हैं ॥ १९ ॥
व्याख्या। हे भारत ! जो भाग्यवान साधक साधन-शक्तिसे माया मोहका भ्रम काटकर इनको (पुरुषोत्तम ) को प्रत्यक्ष करते है