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पञ्चदश अध्याय विषय प्रलीनको प्राप्त होता है, उसीको हृदय कहते हैं, वह हृदय मन का स्थिति-कारण है। सबका स्थितिका स्थान मैं बिना और कोई नहीं है। सब अस्थिर है केवल मैं ही स्थिर हूं।, जो "मैं" में आ पड़ता है, वही स्थिर होता है। जल से मिला हुमा दूध सदृश मैं उस सर्वके हृदयमें सन्निविष्ट हूं। मुझको ही आश्रय करके भाग्यवान लोग पूर्व में जो ब्रह्म थे, पश्चात् जीव बनकर खेलनेके लिये घोर श्रान्त हो करके फिर उसी पहले वाली ब्रह्मावस्थाके स्मरणके लिये स्मृति और "अहं ब्रह्मास्मि'-मैं ही ब्रह्म हूं, यह ज्ञान प्राप्त हो करके मुक्ति पाते हैं। फिर दुराचारी पापी लोग मायाके घेरमें उस स्मृति और ज्ञानको नष्ट कर देते हैं । यह दोनों हमारे ही ऊपर होता है, इसलिये स्मृति
और ज्ञानका उत्थान-अपोहन भी हमहीमें होता है, कहा गया। यही सर्व लोग साम, ऋक्, यजु, अथर्वण अर्थात् कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड द्वारा जाननेको वस्तु मुझको जानते हैं। इसलिये विवत्त-वाद का शेष फल और सब ज्ञानका शेष फल यह दोनों ही मैं हूँ ॥ १५ ॥
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । .. क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ १६ ॥
अन्धयः। क्षरश्च अक्षरश्च इमौ द्वौ पुरुषौ लोके (प्रसिद्धौ ); सर्वाणि भूतानि ( ब्रह्मादिस्थावरान्तानि शरीराणि) क्षरः पुरुषः, कूटस्थः (चेतनो भोक्ता) अक्षरः पुरुषः उच्यते ॥ १६ ॥ ___ अनुवाद। क्षर और अक्षर यह दोनों पुरुष लोकमें प्रसिद्ध है; समुदय भूतगण क्षर पुरुष और कूटस्थ अक्षर पुरुष कह करके कहलाते हैं ॥ १६ ॥
व्याख्या। जैसे एक गृहस्थमेंसे एक मूर्ति निमन्त्रणमें जानेसे वहाँके सब किसीको ही जाना मंजूर होता है; तसे एकमात्र भगवान विष्णुमें पुरुष उपाधिका स्पर्श होनेसे विश्वका जो कोई द्रव्य ( ऐसा कि काठी मूठी तक) को भी पुरुष कहनेसे, मिथ्या कहना नहीं होता।