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पञ्चदश अध्याय
२०६ वा पाचभौतिक जो कुछ है वे सब स्थूल हैं । यह मन ही उन पञ्चभूतोंको धारण करके रहते हैं, क्योंकि मन न रहनेसे उन सबका अस्तित्व नहीं रहता। इसलिये कहा गया कि, सूक्ष्म ही स्थूलको धारण करके रहते हैं। फिर “मैं” की तुलनामें मन भो स्थूल है; कारण यह है कि, मन इन्द्रियोंके ग्राह्य न होनेसे भी मनको अनुभव किया जा सकता है; परन्तु “मैं” को अनुभव भी किया नहीं जा सकता (जो अनुभव करने जाता है, सो भी "मैं" हो जाता है)। अतएव मैं सूक्ष्मातिसूक्ष्म हूँ। जो जितना सूक्ष्म है उसको ओजः उतनी अधिक है। पृथ्वीसे जल दशगुण सूक्ष्म है। सुतरां जलकी व्यापकता शक्ति पृथ्वीसे दशगुणी अधिक है। इस प्रकार "मैं" से सूक्ष्म कोई भी नहीं है, इस करके “मैं” की व्यापकता शक्ति सबसे अधिक है। इसलिये मैं सबके भीतर बाहर व्याप्त हूँ; ऐसे रहने ही को धारण करके रहना कहते हैं। अतएव मैं सबको अपनी शक्तिसे धारण कर रहा हूँ, केवल यही बात नहीं, फिर सर्वरसात्मक सोम (चन्द्र) रूपसे अपना रसाणु प्रवेश कराके धान्य, यव, तिल, गेहूँ आदि औषधि (जिनको खाकर जीव क्षुधा-व्याधिसे बचता है ) की पुष्टि भी मैं करता हूँ॥ १३ ॥ . अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥ १४ ॥ अन्वयः। अहं वैश्वानरः (जठराग्निः ) भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ( देहान्तः प्रविश्य ) प्राणापानसमायुक्तः (प्राणापानाभ्यां संयुक्तः ) चतुविधं ( भक्ष्यं, पेयं, लेद्य, चोष्यं चेति चतुःप्रकारं ) अन्नं पचामि ॥ १४ ।। ।
अनुवाद। मैं प्राणियोंके देहके भीतर वैश्वानर रूपसे प्रवेश करके प्राण और अपानके साथ संयुक्त हो करके चतुर्विध अन्नको परिपाक करता हूँ ।। १४ ।।
व्याख्या। भगवान प्राणि-जठरमें वैश्वानर अग्नि (जठराग्नि ) रूप धरके विराजमान हैं। यह अग्नि अपने उद्दीपक प्राण और अपान के साथ मिल करके, चळ-जिसे चबायके खाया जाता है, चोष्य
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