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श्रीमद्भगवद्गीता तुम जैसे विष्णु हो, तुम्हारी ज्योति भी तैसे विश्वकोषमें व्याप्त हो रही है । चन्द्र, सूर्य, अग्निकी स्वच्छताके लिये उन सबके शरीरमें तुम्हारी ज्योति खिल उठी है। इस कारणसे तुम जगत्के जीवोंके भ्रम नाशके लिये जैसे कहते हो ... "वह जो आदित्यका तेज (आदित्यानामह विष्णुः ) समस्त जगतको जो प्रभासित करता है, वह जो चन्द्र और अग्निका तेज, वह तेज मेरा ही है जानो"। हरि ! हरि ! क्या परिपूर्णत्व है ! ॥ १२ ॥
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥ १३ ॥ अन्वयः। अहं ओजसा ( बलेन ) गां (पृथिवीं) आविश्य च अधिष्ठाय च भूतानि ( चराचराणि) धारयामि, रसात्मकः ( रसमयः) सोमो भूत्वा च सर्वाः औषधीः पुष्णामि ( संवर्द्धयामि ) ॥ १३ ॥
अनुवाद। मैं ओजः शक्तिसे पृथिवीके भीतर प्रवेश करके भूत समूहको धारण करता हूँ। और रसमय चन्द्र हो करके सर्व औषधीकी परिपुष्टि साधन करता हूँ॥ १३ ॥
व्याख्या। सूक्ष्म ही स्थूलको धारण कर रहा है। जो जितना अधिक इन्द्रियग्राह्य है वह उतना हो स्थूल है। चक्षु, कर्ण, नासिका, जिह्वा, त्वक इन पाँचों इन्द्रियोंसे पृथिवीका ग्रहण होता है, इसलिये पृथिवी स्थूल है । जल, चक्षु-कर्ण-जिह्वा-त्वक् इन चार इन्द्रियोंसे ग्रहणयोग्य है, इस करके पृथ्वीसे सूक्ष्म है। फिर तेज, चक्षु-कर्ण-त्वक इन तीन इन्द्रियोंके ग्राह्य है इसलिये तेज जलसे सूक्ष्म है। इस प्रकारसे वायु, कर्ण-त्वक इन दो इन्द्रियोंके ग्राह्य होनेसे तेजसे भी सूक्ष्म हैं।
और आकाश केवल मात्र कर्णेन्द्रियग्राह्य है इस करके वायुसे भी सूक्ष्म है। मन कोई इन्द्रियग्राह्य नहीं है, इसलिये मन आकाशसे भी सूक्ष्म है ( बुद्धि, चित्त और अहंकार यह तीनों ही मनकी अवस्थान्तर मात्र हैं ) इससे समझा गया कि मन सूक्ष्म है, और आकाशादि पचभूत