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पञ्चदश अध्याय
२०५ अनुवाद। ईश्वर (देहका स्वामी जीव ) जब शरीर ग्रहण करता है और शरीर त्याग करता है, तब कुसुमादि आशयसे वायु जैसे गन्ध ग्रहण करके ले जाता है, तैसे मनःषष्ठ इन्द्रियोंको ग्रहण करके ले जाता है ॥८॥
व्याख्या। कहाँ फूल सो जानते नहीं, परन्तु वायु जैसे गन्ध लाकर नाक भराकर मतवाला कर देता है, तैसे एक शरीरके अन्त होने पश्चात् वह शरीरकृत सञ्चित कर्म राशिके साथ उन गणत्रय, इन्द्रिय और मनको लेते हुए, देहेन्द्रियोंके अधिष्ठाता ईश्वर ( जीव ), दूसरे शरीरमें प्रवेश करते हैं ॥८॥
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्वायं विषयानुपसेवते ॥ ६ ॥ अन्वयः। अयं ( देहस्वामी जीवः ) श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणं एव च ( एतानि पञ्च ) मनश्च ( पष्ठ) अधिष्ठाय ( आश्रित्य ) विषयान् ( शब्दादीन् ) उपसेवते ( उपभुके) ॥९॥
अनुवाद। वह ईश्वर ( जीव ) कर्ण, चक्षु, त्वक्, जिह्वा और नासिका तथा मनको आश्रय करके विषय समूह उपभोग करते हैं ॥९॥
व्याख्या। साधक ! तुम्हारी पहलेवाली बद्धावस्थामें तुम अपनी दृष्टि फेंककर और एक बार देखो। वह जो तुमने परित्वक्त देह छोड़कर नवीन देह लिया, इसमें तुम्हारे त्वम्त्वमें कुछ भी परिवर्तन न हुआ। फिर प्रकृति, प्रकृति-विकृति वा गुणोंमें भी कोई अदल बदल नहीं है; परन्तु परिवर्तन केवल त्रि और पञ्चीकरणमें होता है। जितने जितने करणकी अधिकता होती है, तदनुसार अज्ञानताके गाढ़ आलिङ्गनमें तुम विभोर हो जाते हो। वह देखो तुम्हारे नवीन देहमें नवीन बलसे बलीयान कर्ण, चक्षु, नासिका, जिह्वा और त्वक् को आश्रय करके मन पूर्वापेक्षा कितने तेजसे विषयका उपभोग कर रहा है। श्रवण, दर्शन, स्पर्शन, रसन और घ्राणेन्द्रियोंके आश्रय लेकर