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. श्रीमद्भगवद्गीता बस्तु तुम हो; निधानं = तुम इस विश्वके शेष प्राश्रय हो; तुम अव्यय = अपरिणामी हो; शाश्वत = चिरस्थायी तुम हो; धर्मगोप्ता=यह विश्वही तुम हो, परन्तु तुम इस विश्वको जसे धारण कर रहे हो,तुम्हारा यह जो आवरण है, यही तुम को आत्मगोपन करनेवाला बनाया है। सनातन=अनादिसिद्ध चिरन्तन पुरुष तुम हो, पुरुष= सर्व शब्दके अर्थ के अन्तरात्मा तुम हो;-यही मैं समझता हूँ॥ १८ ॥
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुँ शशिसूर्य्यनेत्रम् । पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥ १६ ॥
अन्वयः। त्वां अनादिमध्यान्तं ( उत्पत्तिस्थितिलयरहितं ) अनन्तवोयें अनन्तबाहुँ शशिसूर्यनेत्रं दीप्तहुताशवक्त्रं ( प्रज्ज्वलिताग्निमुख) स्वतेजसा इदं विश्वं तपन्तं ( सन्तापयन्तं ) पश्यामि ॥ १९॥ .
अनुवाद। तुमको आदिमध्यान्तरहित, अनन्तवीर्यशालो, अनन्त बाहुयुक्त, शशिसूर्यनेत्र, प्रदीप्ताभिमुख और स्वतेजसे इस विश्वके सन्तापक स्वरूप में देखता हूँ॥१९॥
व्याख्या। तुम्हारा श्रादि, अन्त और मध्य नहीं, तुम अनन्त हो। तुम्हारे शौर्य, प्रताप, गौरव तथा सामर्थ्यका अन्त नहीं, तुम अनन्त हो। तुम्हारी क्रिया-शक्ति सर्वत्र समान रूपसे वर्तमान है, तुम अनन्त हो। तुम उग्रसे भी उग्र और सौम्यसे भी सौम्य स्वरूप से द्रष्टा हो। तुम्हारा मुख प्रज्वलित अग्निशिखामय है। तुम्हारे महान् तेजसे इस जगत्को तपायमान देखता हूँ ( इस तेजसे तपित यह ह्माण्ड कहीं गल न जाय, मुझे इसी सन्देह है )॥ १६ ॥