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श्रीमद्भगवद्गीता केवलत्व और श्रेष्ठत्व है, उसको परमेश्वर कहते हैं। महाकाशमें लोहे का प्राचीर दे करके किल्ला बनानेसे जैसे आकाश विच्छिन्न नहीं होता, तैसे प्राकृतिक अध्यास वा अपवाद का प्रलेप ब्रह्मको स्पर्श नहीं कर सकता। अज्ञानियोंके चक्षुमें किल्लाके प्राकारसे भाकाशको विच्छिन्न बोध होनेसे भी ज्ञानियों के चक्षुमें जैसे वह बाधा महाकाश में नहीं ठहरता; ज्ञानी जैसे पर्वत, प्राचीर, वृक्ष पत्थरके भीतर बाहर अविच्छिन्न एक महाकाशको ही देखते हैं। वैसे एक परमेश्वर सर्वभूतों में समभावसे महाकाश सदृश अविच्छिन्न भावसे ( निरन्तर ) वर्त्तमान है। प्राकृतिक परिवर्तनसे उस नित्य सत्यका कुछ भी परिवर्तन नहीं होता। यह व्यापार देखनेके अधिकारी जो हुए हैं, उसे वही देखते हैं, दूसरेके लिये दुज्ञेय है। अपनी फ्रियाकी पूर्वावस्था, क्रियावस्था, क्रियाकी परावस्था, और क्रियाकी परावस्थाकी परावस्थासे मिला लेनेसे ही साधकको यह भ्रम नहीं रहेगा ॥२८॥
ब्रह्ममें माया-प्रसूत गोलकधंधा जितना स्थान अधिकार कर चुका है उतने स्थानमें जो ब्रह्म-अंश हुअ है अर्थात् माया ब्रह्म का संयोग हुआ है, उतना स्थान गुणमयी मायाके संस्पर्श-दोषसे गुणों के संक्रभ हो करके सगुण-ब्रह्म नाम लिया है। यह सगुण ब्रह्म ही 'ईश्वर" है। इस सगुण ब्रह्मके अधिकारमें असंख्य माया विकार विश्वब्रह्माण्ड उस आंख की मणियोंके सदृश स्थान पा चुके हैं। आकाशकी गोलकसे
आंख की मणियों की गोलक बहुत दूर में तथा छोटेसे छोटा [ जरा सा ] है। नित्य निरंजन सत्य ब्रह्ममें ईश्वरसे आदि लेकर असल माया की आबास-भूमिका असत्य मिथ्याभी बहुत दूर में और छोटोसे छोटी है । ईश्वर इस माया को अपने वशमें रक्खे हैं इस करके उनका नाम मायावशी है। और वह चिदाकाश जैसे जैसे मायाको दिशा (तरफ) में निकट उतरते आये तैसे तैसे वह मायाके वशीभूत होते गये। वही मायाका वशीभूत अवस्था जीव है। यह जीव तैसे जैसे मायाके निकट आते गये, तसे तैसे वशीभूतताके तारतम्यानुसार देवता, असुर, मानुष, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष, प्रभृति नाम पा चुके हैं।