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श्रीमद्भगवद्गीता उस अविकारीके ऊपर (आकाशके शरीरमें धुआंके सदृश ) कोई छाप नहीं लगा सकते। इसलिये कहा जाता है अनादि, निगुण, अव्यय परमात्माका सादि, सगुण प्रकृतिका बाड़ामें लिप्त होनेका अथवा कुछ करनेका कोई रास्ता नहीं है ॥ ३२ ॥
यथा सर्वगतं सौक्षम्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ ३३ ॥ अन्वयः। यथा सर्वगतं आकाशं सौक्ष्म्यात् ( असंगत्वात् ) न उपलिष्यते, तथा आत्मा देहे सर्वत्र अवस्थितः ( अपि ) न उपलिप्यते ॥ ३३ ॥
अनुवाद। जसे सर्वगत आकाश सूक्ष्मत्व हेतु ( कभी किसीमें ) लिप्त नहीं होता तैसे आत्मा देह में सर्वत्र रह करके भी नहीं लिप्त होता ॥ ३३ ॥
व्याख्या। परमात्मा जो शरीरस्थ हो करके भी क्यों लिप्त नहीं होते, इसका उदाहरण आकाश है। सूक्ष्मतत्व हेतु आकाश सर्वगत है; ऐसा स्थान वा चीज कोई नहीं है जहां वा जिसके भीतर बाहर आकाश नहीं है। इ. आकाशको धुसे छाय दो, धूमाकीर्ण कर दो, धूलि उड़ा दो, कीचड़ छिटा दो, जितने प्रकारसे हो सके आकाश को मैलायुक्त करनेकी चेष्टा करो, देखोगे आकाशके शरीरमें कोई कुछ भी छाप नहीं लगा सकता धुआं धूल प्रभृति जब हट जायगा, तब ही देखोगे आकाश जैसा साफ था वैसा ही है। सूक्ष्मपदार्थ होनेके कारण आकाश स्थूलके साथ नहीं मिलता। यह आकाश जैसे सब पदार्थों के भीतर बाहर रह करके भी किसीके साथ लिप्त नहीं होता है, ठीक बसे आत्मा सूक्ष्मातिसूक्ष्म होनेसे इस जगत् ब्रह्माण्डमें जितने देह हैं सबके भीतर बाहर रह करके भी किसीके साथ या कभी किसी के काम काजमें लिप्यमान नहीं होता ॥ ३३ ॥