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श्रीमद्भगवद्गीता उत्पन्न होती हैं, उन सबकी योनि वह महब्रह्म और वह "अहं (मैं) बीजदाता पिता हूँ॥४॥
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ ५॥ अन्वयः। हे महाबाहोसत्त्वं रजः तमः इति गुणाः ( इत्येवं संज्ञकाः त्रयो गुणा: ) प्रकृतिसम्भवाः ( गुणसाम्यं प्रकृतिः, तस्याः सकाशात् पृथक्त्वेनाभिव्यक्ताः सन्तः ) देहे (प्रकृतिकायें शरीरे ) देहिनं ( तादात्म्येन स्थितं चिदंशं ) अव्ययं ( वस्तुतः निविकारमेव सन्तं ) निवघ्नन्ति (स्वकार्ये सुखदुःखमोहादिमिः संयोजयन्तीस्थीर्थः) ॥५॥
अनुवाद। हे महाबाहो। सत्त्व, रजः, तमः यह तीन गुण प्रकृतिसे सम्भूत हो करके देहमें देहौ को (अव्यय होनेसे भी ) निबद्ध करते हैं ॥५॥ .
व्याख्या। पहिले ही कह चुका हूँ कि, मैं देही नहीं हूँ-मैं देह नहीं हूँ, “मैं” का देह नहीं, मैं जीव नहीं हूँ; मैं निर्विकार चित् हूँ। तथापि तीन गुण क्या हैं ? और उसमें अव्यय "मैं” को किस प्रकार से देह-बन्धनमें लाता है ? वही विषय समझाने के लिये कहा जाता है कि, सत्त्व रजः तमः यह तीनों गुण ही प्रकृतिसे उत्पन्न हैं। हे महाबाहो! (जिसके दोनों हाथके वेष्टनके भीतर "सर्व" नाम करके जो कुछ अायत्तमें आता है, वही महाबाहु है ) यह तीनों गुण अव्यय निर्विकारमें भी विकार लगाकर और उसे देहके भीतर लाकर देही बनाके बांध डालते हैं ॥५॥
तत्र सत्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ ॥६॥ अन्वयः। हे अनघ! तत्र ( तेषां गुणानां मध्ये ) सत्त्वं निर्मलत्वात् (स्वच्छत्वात् स्फटिकमणिरिव ) प्रकाशकं (भास्वरं ) अनामयं च (निरुपद्रवं शान्तमित्यर्थः); (अतः ) सुखसंगेन (शान्तत्वात् स्वकार्येण सुखेन यः संगस्तेन )