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श्रीमद्भगवद्गीता फल नहीं है, वही देहाभिमान नाशकी परावस्था प्राप्त हो चुके, तथा जो लोग जानते हैं, उन सबका शरीर त्यागके पहिले जीवन्मुक्तत्व मोग तत्पश्चात ब्रह्ममें लय होता है ॥ १॥ ... इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्ययन्ति च ॥ २॥ अन्वयः। इदं ( वक्ष्यमाणं ) ज्ञानं उपाश्रित्यं ( ज्ञानसाधनमनुष्ठाय ) मम साधयं (मत्स्वरूपता ) आगताः (प्राप्ताः सन्तः ) सर्गे अपि ( सृष्टिकाले अपि) न उपजायन्ते (न छल्पद्यन्ते ) प्रलये ( ब्रह्मणोऽपि विनाशकाले ) न व्यथन्ति च ( व्यथा न आपद्यन्ते न च्यवन्तीत्यर्थः ॥ २॥
अनुवाद। इस ज्ञानका आश्रय करके हमारा स्वरूपत्व प्राप्त होनेसे वे लोग सृष्टि कालमें भी उत्पन्न नहीं होते और प्रलय कालमें भी व्यथा ( संकट ) को प्राप्त नहीं होते ॥२॥
व्याख्या। यह जो उत्तम परमज्ञानकी कथा कही जाती है, यह ज्ञान तीव्रतम वेग करके साधनमें अनुष्ठित होनेसे "मैं" की साधर्म्य अर्थात् स्वरूपत्व प्राप्ति होती है-ब्रह्ममें परिलीन होता है, जैसे डोरीखण्ड पड़ा हुआ है जानते मात्र सर्पभय आपही आप मिट जाता है, तैसे । इस अवस्था द्वत वा अद्वैत कोई भाव-विकार ही नहीं रहता, इस कारण सृष्टि कालके उदय और प्रलयके क्षय इन दोनोंके किसी कष्टसे व्यथित होनेका अवसर नहीं आता ॥२॥
मम योनिमहद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भ दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥३॥ अन्वयः। हे भारत ! महद्ब्रह्म (प्रकृतिः) मम ( परमेश्वरस्य ) योनिः (गर्भाधानस्थान ), अहं तस्मिन् ( महति ब्रह्मणि योनौ ) गर्भ ( जगद्विस्तारहेतु चिदाभासं) दधामि ( निक्षिपामि ) ततः ( गर्भाधानात् ) सर्वभूतानां (ब्रह्मादीनां ) सम्भवः ( उत्पत्तिः ) भवति ॥ ३ ॥