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चतुर्दश अध्याय
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्वमित्युत ॥ ११ ॥
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अन्वयः । यदा अस्मिन् देहे सर्बद्वारेषु ( श्रोत्रादिषु सर्वेष्वपि द्वारेषु ) ज्ञानं ( शब्दादिज्ञानात्मकः) प्रकाशः उपजायते, तदा उत सत्त्वं विवृद्ध विद्यात् ( जानीयात् ) ॥ ११॥
अनुवाद | जब इस देहकै समुदय द्वार में ज्ञानात्मक प्रकाश उत्पन्न हो, तबही जानना सत्वगुणं विवृद्ध हुआ है ॥ ११ ॥
उतनी ही भोग
व्याख्या । दश इन्द्रियोंका दश कार्य हैं, परन्तु विषय पाँच हैं । बार बार भोग करके प्राकृतिक शरीर में इनका किसी एकका भी तृप्ति साधन नहीं होता। जितना भोग किया जाय लालसाकी वृद्धि होती है। इस प्रकार भोग करते चलनेसे शतकोटी ब्रह्मकल्पमें भी भोग - लालसाकी शान्ति न हो करके वृद्धि ही होती चलेगी। इससे तो आवागमन निवारण नहीं होगा । अतएव इन सबसे अत्यन्त निवृत्ति बिना मृत्युके हाथसे अव्याहत पाने का दूसरा उपाय नहीं हैं ।
ज्ञानेन्द्रियका काम ग्रहण है, कर्मेन्द्रियोंका काज त्याग है । ये सब जितने दिन रहेंगे यह काज ही करते रहेंगे । एक बार जिसको भोग किया हैं फिर जितनी बार उसको भोग करूंगा, प्रथम भोगके रस बिना दूसरी नवीनता उसमें नहीं है । तब यह उच्छिष्ट भोजन करके काल काटने से मतलब ही क्या ? यह ज्ञान जब हृदयको सम्यक् रूपसे अधिकार करेगा, तब ही सत्वगुण का अधिकार है, जानना । सर्वद्वार शब्द अन्तःकरणको समझाता है ॥ ११ ॥
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ १२ ॥
अन्वयः । हे भरतर्षभ ! लोभः ( धनाद्यागमे बहुधा जायमानेऽपि यः पुनः पुनः वर्द्धमानोऽभिलाषः ) प्रवृत्तिः ( भोगोच्छा ) कर्मणां आरम्भ: ( भोगेच्छा
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