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चतुर्दश अध्याय
१६१ करके गुगसमूहके कार्य द्वारा विचलित नहीं होते, (अपि तु ) गुणसमूह अपने अपने कार्य में ही हैं, इस प्रकार समझ करके स्थिर भावमें अवस्थित रहते हैं, चञ्चल नहीं होते, सुख दुःखमें जिस साधक को समान ज्ञान, जो साधक स्वस्थ (आत्मामें स्थित ), लोष्ट, अश्म और काञ्चनमें जिस साधकका समान ज्ञान, प्रिय और अप्रिय जिनके लिये बरावर है, जो धीर, जिनका निन्दा और प्रशंसा तुल्य ज्ञान, मान
और अपमानमें जो साधक तुल्यभावापन्न, मित्र और अरिपक्षमें भी जिनका समान ज्ञान है, और जो साधक सर्व प्रकार उद्यम परित्यागी हैं, वे ही साधक गुणातीत कह करके उक्त होते है ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥
व्याख्या। हे पाण्डव ! यह जो सत्वका कार्य प्रकाश, रजोका 'प्रवृत्ति और तमोका मोह है, इनमें जो साधक अनुराग वा विराग नहीं करते; गुण भी गुण है और गुणों के कार्यसमूह भी रूपान्तरित गुण हैं। इस प्रकार समझ करके गुणोंके द्रष्टा हो करके जो साधक स्वस्वरूप प्राप्त होनेके लिये प्रवृत्तिका त्याग और कष्ट तथा मूढत्वका लोप करनेके लिये निवृत्तिकी आकांक्षा करें, उन्हींको गुणातीत कहते हैं।
___ जो ऊंचेमें बैठा है उसको जसे नीचेमें बैठ करके कोई छू नहीं सकते, तैसे ही गुण और गुणोंके कार्य से पृथक हो करके जो साधक गुण और गुणोंके कार्य द्वारा बाधा बिघ्न बोध न करें, जो साधक स्वस्थ अर्थात् सदाकाल स्वस्वरूपमें स्थित हैं; सुख, दुःख, लोष्ट (मिट्टी का टुकड़ा), अश्म (पत्थरका टुकड़ा) काञ्चनादिमें भिन्न ज्ञान जिनका मिट गया है। प्रिय और अप्रिय कह करके कोई वृत्ति जिनके अन्तःकरणमें उदय नहीं होती; जिनको निन्दा स्तुति, मान अपमान, शत्र मित्रमें भेद बोध नहीं है, जिस साधकमें सर्व प्रकार प्रारम्भका ही परित्याग हो चूका ( जो किसी प्रकारके काम काजका प्रारम्भ ही नहीं करते ), उन्हींको गुणातीत कहते हैं ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥२५॥