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चतुर्दश अध्याय ही उस समस्त अवस्था और उस अवस्था समूहका स्रष्टा कर्ता रूपसे प्रत्यक्ष करते हैं तथा गुणोंसे अतीत साक्षीस्वरूप आत्माको जानते हैं, वे पुरुष ही उन गुण-व्यापारोंका साक्षी हो करके "मैं” का स्वरूप लाभ करते हैं, अर्थात् मेरे वासुदेव-भाव ( "वासुदेवः सर्वमिति" इस अपरोक्ष ज्ञान) को प्राप्त होते हैं। किस प्रकारसे वासुदेवत्व प्राप्त होते हैं ?–कि उन तीन गुणोंके बनाए हुए स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर में उस विद्वानको उस परिचित गुण समूह और छिपाकर रख नहीं सकते । उनके सामने उन तीन गुणोंका टूटा हुआ इन्द्रजाल और जुड़ नहीं सकता। देह ही उत्पन्न हो करके जन्म, मृत्यु, जरा, दुःख भोग करवाता है। परन्तु उस देहके उत्पन्न होनेका कारण नष्ट हो जाने से, कार्य फिर प्रकाश नहीं होता। भोगाधारके अभावसे (देह-ज्ञान न रहनेसे ) जन्म-मृत्यु-जरा-दुःखके जो अनुत्थान है, उसीको त्रिगुणातीत स्वरूप प्राप्ति तथा देहीका अमरत्व लाभ वा मुक्ति कहते हैं, वही होता भी है ॥ १६ ॥२०॥
अर्जुन उवाच । कैलिङ्गखीन गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतस्त्रिीन गुणानतिवत्तते ॥ २१ ॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच । हे प्रभो! ( देही ) कैः लिङ्ग ( कोदशैरात्मचिह्न:) एतान् त्रोन् गुणान् अतीतः ( अतिक्रान्तः ) भवति? किमाचारः (क अस्य आचारः ) ? कथं ( केन उपायेन ) एतान् त्रान् गुणान् अतिवर्त ते ( अतीत्य बत्तते)? ___ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं। हे प्रभो । देही कौन कौन चिह्न द्वारा इन तीन गुणोंसे अतीत होते हैं ! यह पुरुष किस प्रकार आचार विशिष्ट होते हैं ? -कौन उपायसे इन तीन गुणोंको अतिक्रम करके अवस्थान करते हैं ? ॥ २१ ॥
व्याख्या। गुणकर्म-विकारके वशसे चलने फिरनेमें अभ्यस्त साधक गुणातीत अवस्थाका चाल चलन स्थिति और देह धारण करके