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श्रीमद्भगवद्गीता मूत्तिमान काम और रति इस चक्रमें निवास करते हैं। यह रति और काम मिलित वृत्तियां जिसके अन्तःकरणमें खेलती रहती हैं, उसको जघन्यगुणवृत्तिस्थ कहते हैं। इसका लक्ष्य ऊर्ध्व दिशामें न रह करके अधो दिशामें रहता है, इसलिये अधोगतिको प्राप्त होता है। (१म अ. १म श्लोककी व्याख्या देखो ) ॥ १८ ॥
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति । गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ १० ॥ गुणानेतानतीत्य त्रीन देही देहसमुद्भवान् । जन्ममृत्युजरादुःखैविमुक्तोऽतृतमश्नते ॥ २० ॥
अन्वयः। यदा द्रष्टा (विषकी भूत्वा ) गुणेभ्यः ( बुद्धयाद्याकारपरिणतेभ्यः) अन्यं कर्तारं म अनुपश्यति, गुणेभ्यश्च परं व्यतिरिक्त तत्साक्षिणमात्मानं ) वेत्ति, (तदा) सः (जी घः) मद्भाव ( ब्रह्मत्वं ) अधिगच्छति ( प्राप्नोति ) देही देहसमुद्भवान् ( देहोत्पत्तिबीजभूतान् ) एतान् त्रीन् गुणान् अतीत्य जन्ममृत्युजरादुःखः विमुक्तः सन् अमृतं अश्नुते ( परमानन्दं प्राप्नोति )॥ १९ ॥ २० ॥
___ अनुवाद। जब जीव द्रष्टा होकरके सब गुण बिना दूसरे किसीको कर्ता रूपसे दर्शन नहीं करते और गुण समूहके अतीत तत्साक्षी स्वरूप आत्माको जान लेते हैं, तब वे ( जीव ) मद्भाव ( ब्रह्मत्व ) प्राप्त होते हैं। देही देहोत्पत्तिका बोज स्वरूप इन तीन गुणोंको अतिक्रम करके जन्म, मृत्यु, जरा दुःखसे विभक्त हो करके परमानन्दको प्राप्त होते हैं ।। १९ ।। २० ॥
__ व्याख्या। जो देख आये इससे समझा गया कि वह तीन गुण ही कार्य, कारण और विषय बन करके रूप बदलते हुए बहुरूपीका खेल खेलता है। बालू, मट्टी, पत्थर आदिमें निर्जीवका और मानुष, पशु, पक्षी आदिमें सजीवका दृश्य दिखलाकर एक जगत् खड़ा करके झगड़ा करता है। इस झगड़ेका कर्ता भी उन तीन गुण बिना और कोई नहीं है। दृढ़ अभ्यासके बलसे जो विद्वान इन तीन गुणोंको