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१८२ ____श्रीमद्भगवद्गीता प्रकाशका जो ज्ञान है, उसको छिपा रखकर उचित काजके विपरीत करवाता है, जिसमें अमंगल हो उसोके साथ मिलन करता है। जैसे स्वस्थ शरीरमें मादक द्रव्य प्रवेश कराकर अज्ञान (बेहोश ) होकर पढ़ा रहना; इत्यादि कर्मों को ही प्रभाद कहते हैं। हे भारत ! शुद्ध तमोगुणकी जो कैवल्य स्थिति है, वह इस प्राकतिक तमोगुणमें नहीं है॥४॥
रजस्तमश्चाभिभूय सत्वं भवति भारत । रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥ १०॥
अन्वयः। हे भारत। सत्त्वं ( सत्त्वाख्यो गुणः ) रजस्तमश्च ( उभावपि ) अभिभूय (तिरस्कृत्य ) भवति ( उद्भवति, स्वकार्ये सुखज्ञानादौ सञ्जयतोत्यर्थ ); रजः ( रजोगुणः ) सत्त्वं तमश्च एव ( उभावपि ) अभिभूय भवति ( स्वकार्ये तृष्णासंगादौ सञ्जयति ), यथा तमः (तम आख्यो गुणः ) सत्त्वं रजश्च ( उभावपि गुणो) अभिभूय भवति ( स्वकार्ये प्रमादालस्यादौ सञ्जयतीत्यर्थः ॥ १० ॥
अनुषाद। हे भारत ! सत्त्वगुण रज और तमोगुण दोनों को अभिभूत करके उद्भत होता है ( सुख ज्ञाना दिमें संयोजनरूप स्वकार्य करता है ), रजोगुण सत्त्व
और तमोगुण दोनोंको अभिभूत करके उद्भ'त होता है ( तृष्णा संगादिमें संयोजनरूप स्वकार्य करता है ), और तमोगुण सत्त्व और रजोगुण दोनोंको अभिभूत करके उद्भूत होता है ( प्रमाद आलस्यादिमें संयोजनरूप स्वकार्य करता है ) ॥ १० ॥
व्याख्या। हे भारत ! यह जो तीनों गुणकी बात कही हुई है, यह सब युगपत् उदय होकरके एक कालमें कोई कुछ कार्य कर नहीं सकते। जब सत्त्वका प्राधान्य होता है, तब रजः और तमः दोनों ही दबे रहते हैं। फिर रजोके प्रकाश-समयमें सत्व और तमः अभिभूत रहते हैं । तैसे तमोकी क्रिया कालमें रज और सत्त्व विश्राम भोग करते हैं ॥ १०॥